न्यायिक क्षेत्र में भी जवाबदेही की ज़रूरत

कहा जाता है कि कानून सब के लिए बराबर है, कानून के अन्धा होने की बात भी कही जाती है, वह किसी के भी साथ भेदभाव नहीं करता और कानून ही है जो अमीर या गरीब, छोटा या बड़ा, सब के साथ न्याय करता है। मतलब यह कि कानून ही हमारा संरक्षक और कहें तो हमारा विधाता है। व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो कानून इतना लचीला भी है कि उसके चंगुल से चतुराई, होशियारी और उसमें निहित छिद्रों का हवाला देकर कानून को ठेंगा भी दिखाया जा सकता है। सीधे-सीधे कानून का उल्लंघन करना किसी के लिए भारी पड़ सकता है लेकिन उसकी किसी कमी का फायदा उठाकर बचने का रास्ता भी निकालना संभव है। हमारे सांसद केन्द्र सरकार में और विधायक राज्य सरकारों में कानून बनाने की जिम्मेदारी निबाहते हैं। इसमें बहुत सी बातों का समावेश अपने आप हो जाता है जैसे कि कानून बनाते समय किसी वर्ग विशेष का ध्यान रखना या सत्तारूढ़ दल के हितों को साधने वाले कानून बनाना या फिर तथाकथित संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को कानून के दायरे से दूर रखना और संविधान की दुहाई देकर उन्हें एक तरह से अभयदान देना कि वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं, कोई रोक-टोक नहीं, कोई सबूत नहीं, कोई दलील नहीं, केवल जो वे कहे वही पत्थर की लकीर और अगर किसी ने उन्हें  चुनौती देने की कोशिश की तो उसकी खैर नहीं। 
क्या यह नहीं हो सकता कि हमारे कानून निर्माता कानून बनाने में कोई गलती कर सकते हैं या फिर जिनके कन्धों पर कानून का पालन सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी है वे अपना कर्त्तव्य निभाने में कोताही कर सकते हैं, तो क्या उन पर भी कोई कानून लागू होता है जो उन्हें सज़ा दे सके?
एक उदाहरण देते हैं। हमारी अदालतों में जिला अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक में सभी जजों ने एक जैसी ही पढ़ाई की हुई होती है। लगभग एक जैसी ही परीक्षाएं देकर वे न्यायाधीश की कुर्सी संभालते हैं। सभी के काम करने की प्रक्रिया भी लगभग एक जैसी ही होती है। इसी तरह जो वकील समुदाय है, वह वकालत करने के लिए उसी तरह कानून की पढ़ाई करता है जैसा कि कोई व्यक्ति ज्यूडीशियरी सेवाओं में आने के लिए करता है।एक व्यक्ति मान लीजिए निचली अदालत का जज है और उसने किसी मामले में कोई फैसला दिया। अब निर्णय यदि वादी या प्रतिवादी को ठीक नहीं लगता तो वह उससे बड़ी अदालत में जा सकता है। वहां जाकर निचली अदालत के फैसले को पलट दिया जाता है जैसा कि इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं कि एक अदालत से फांसी की सज़ा पाया व्यक्ति दूसरी अदालत में बेदाग बरी हो जाता है। इससे क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि निचली अदालत ने उन तथ्यों पर गौर नहीं किया जिन पर ऊपर की अदालत की नजर पड़ गयी और फैसला पूरी तरह से पलट दिया गया। अब इस चक्कर में दो-चार से लेकर दस-बीस साल तक लग गये तो जिस निचली अदालत ने किसी व्यक्ति को अपराधी मानकर जेल में डाल दिया था तो उसकी तो जिन्दगी ही बदल चुकी होती है। ऊपर की अदालत ने उसे बरी कर दिया लेकिन उसके साथ जो अन्याय हुआ उसके लिए वह किससे न्याय मांगे?
कानून का खिलवाड़
इस अवस्था में क्या उस अदालत के जज को सज़ा दिये जाने की कोई व्यवस्था है जिसने अपनी अज्ञानता, तथ्यों का पूरा अध्ययन किये बिना एक गलत फैसला दिया। हमारे संविधान या कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं नजर आया जिसमें उस जज को उसकी गलती की सज़ा दिये जाने की व्यवस्था हो। अदालतों में लाखों की संख्या में मुकद्दमें इंसाफ  पाने के लिए अदालतों की अलमारियों से बाहर निकलने का इंतजार ही करते रहते हैं और जिसके साथ अन्याय हुआ है वह पीढ़ी दर पीढ़ी केवल न्याय पाने की आस लगाए रहता है। क्या कोई ऐसा कानून, नियम या प्रावधान है जो उन अदालतों और वहां बैठने वालों को इस बात की सजा दे सके कि उनकी अदालत में इतनी बड़ी संख्या में मुकद्दमें क्यों पेंडिंग हैं? खोजने पर भी ऐसा कुछ नहीं मिला जिसमें ऐसे जजों को सज़ा दी जा सकती हो जो तारीख पर तारीख देते रहते हैं और इस तरह फैसले की घड़ी निरन्तर टलती जाती है। यह एक तरह से ऐसा ही है कि कानून अपने साथ स्वयं खिलवाड़ करे और उसका पालन करने के लिए ज़िम्मेदार लोग कानून का मज़ाक उड़ाते रहें ये लोग कानून को अपने हाथ में लेने की नसीहत देते हैं, लेकिन विरोधाभास यह है कि जब कोई जज कानून की गलत व्याख्या कर उसे तोड़ -मरोड़कर गलत फैसला देता है तो उसका क्या होगा? 
यह कैसा न्याय है?
अब एक दूसरा उदाहरण देते हैं। एक डाक्टर द्वारा किसी मरीज के इलाज में ढील बरतने, लापरवाही या अज्ञानता के कारण कोताही हो जाती है तो उसे मैडीकल नेगलीजेंसी का नाम देकर उस डाक्टर के खिलाफ  उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत कार्रवाई किये जाने का प्रावधान है। डाक्टर को मरीज का इलाज करने के लिए अक्सर निर्णय तुरन्त लेना पड़ता है, उसकी जान बचाने या उसे रोग मुक्त करने के लिए जल्दी से जल्दी इलाज शुरू करना होता है। उसकी जरा सी भूल, गलत दवाई, इंजेक्शन या मज़र् को पहचानने में हुई तनिक सी भी गलती का नतीजा भयंकर हो सकता है। अब न्यायालयों की कार्य प्रणाली पर गौर करते हैं। वहां  मुकद्दमे का फैसला करने में जज चाहे कितना भी समय ले सकते हैं। मुकद्दमों का अध्ययन करने में कितना भी वक्त लग सकता है। यह अपनी मर्जी है कि अपने विवेक का इस्तेमाल कब और कैसे करें। अब अगर उस जज ने किसी मुकद्दमे के फैसले में किसी भी कारण से कोई चूक कर दी तो बन्दा तो फांसी तक पर लटकता नजर आएगा और इस चूक के लिए कोई हर्जाना नहीं,  कोई सज़ा नहीं और कितनी भी देरी से फैसला सुनाया गया हो उस पर कोई छींटा नहीं आ सकता क्योंकि न्यायाधीश पर किसी तरह का आरोप लगाया जा सकना संभव नहीं है।
वकील और कानून
वकील अपनी जिरह में अक्सर यह भ्रम फैलाने में कामयाब हो जाते हैं कि यह समझना मुश्किल हो जाता है कि व्यक्ति अपराधी है भी या नहीं? इसी भ्रम का फायदा उठाकर कई बार असली अपराधी बाहर घूमते रहते हैं और निरपराध जेल में चक्की पीसते रहते हैं। वकीलों की फीस के बारे में कहना यह है कि क्या कभी किसी ने इस बारे में सोचा है कि वकीलों द्वारा लाखों में ली जाने वाली फीस को नियंत्रित करने के लिए भी कोई कानून बनना चाहिए ताकि मुव्विकल अच्छे से अच्छे वकील की सेवाएं ले सकें। यह ठीक उसी तरह की बात है जैसे कि दलील दी जाती है कि डाक्टरों की फीस पर सरकारी नियत्रंण होना चाहिए कि वे एक निश्चित फ ीस से ज्यादा नहीं ले सकते। यह सोचने की बात है कि क्या वकीलों और जजों को भी उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में नहीं आना चाहिए, जिस तरह डाक्टरों और दूसरे व्यवसाय करने वालों को रखा गया है। यदि कोई हमारे साथ धोखाधड़ी करता है, नकली या घटिया सामान देता है और हमने उसकी पूरी कीमत अदा की है तो यह हमारा अधिकार है कि उस व्यक्ति को कानून सज़ा दिलवाएं और हमारे नुक्सान की भरपाई सुनिश्चित हो। लेकिन यदि कोई वकील गलत सलाह देता है, मुकद्दमे की पैरवी ठीक से नहीं करता या उसके पास कानून का पर्याप्त ज्ञान नहीं है तो क्या उसके खिलाफ  कोई मुआवजा दिये जाने का कहीं कोई प्रावधान है?  यदि हमें समाज में न्याय व्यवस्था को सही मायने में लागू करना है तो हमारा जो विधि समाज है उसे स्वयं पर लगाम कसने के लिए स्वयं ही आगे आना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज में अव्यवस्था फैलना लाजिमी है। इसका उदाहरण हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों के बीच आपसी खींचातानी, आरोप-प्रत्यारोप लगाया जाना और जजों द्वारा प्रेस कान्फ्रें स के जरिए अपना दर्द बयान करना है। यह इस बात का संकेत है कि हमारी न्याय व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने का समय आ चुका है।