उपेक्षा की जगह विश्वास की ज़रूरत

हाल ही में कॉमनवेल्थ गेम्ज़ में भारत के लिए मीराबाई चानू ने भारत को स्वर्ण पदक दिला दिया। ऐसा करते हुए चानू ने 12 विश्व रिकार्ड भी तोड़े जिनमें 6 अंतर्राष्ट्रीय, 3 राष्ट्रीय और तीन व्यक्तिगत रिकार्ड हैं। चानू ने 196 किलो वज़न उठा कर भारत का, अपना और महिला शक्ति का सम्मान बढ़ाया है। इससे पूर्व पी.वी. सिद्ध, सायना नेहवाल, पी.टी. ऊषा, साइना मिर्ज़ा मैरीकॉम, मीताली राज खेल जगत में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने तथा भारत के लिए सम्मान अर्जित कर चुकी हैं। यह सब आज के दृष्टि पटल पर इसलिए उल्लेखनीय है कि लड़कियां खेल जगत में ही नहीं, डाक्टरी, अध्यापन, बैंकिंग, इंजीनियरिंग, कृषि व्यापार, सभी क्षेत्रों में अपनी भागीदारी, दायित्व के साथ दर्ज करवाने में सफल रही हैं। परन्तु इसके बावजूद एक-दूसरे स्तर पर ऐसा क्यों लगता है कि समानता, सम्मान और मानवीयता की दृष्टि से उन्हें दोयम दर्जे में रखकर उनकी बार-बार अवहेलना की जाती है? पुरुष और स्त्री के बीच एक खाई, एक फासला महसूस किया जा रहा है। सूचना के अनुसार वैश्विक लैंगिक सूचकांक के आकलन में विश्व में 144 देशों में हमारा नम्बर 108 बताया जा रहा है जोकि 2016 में 87वां नम्बर दिखा रहा था। राजनीतिक, सामाजिक स्तर पर महिला शक्ति के लिए की गई घटाटोप घोषणाओं के बावजूद कार्पोरेट सैक्टर में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 17 प्रतिशत है। चिंतनीय पहलू तो यह है कि भारत की स्नानतक (ग्रेजुएट) महिलाओं को आर्थिक रूप से किसी उत्पादक कार्य का दायित्व नहीं दिया जा सका। अपने देश भारत में स्त्री को दूसरे दर्जे का या निम्न समझने का चलन भारत सरकार के 2017-18 के आर्थिक सर्वे से भी पता चलता है। इस सर्वे के अनुसार भारत में छ: करोड़ तीस लाख लड़कियों को जन्म से पहले ही गर्भ में मौत के घाट उतार दिया गया। भारत के विद्वान अमर्त्य सेन ने ‘गायब लड़कियां (मिसिंग गल्ज़र्) नाम दिया है। कई देशों की पूरी आबादी इस संस्था के सामने कम ही होगी। यह सर्वे यह भी बताता है कि दो करोड़ दस लाख ऐसी लड़कियां पैदा हुईं जिनके माता-पिता लड़कियों का जन्म नहीं चाहते थे। इन अनचाही लड़कियों का जन्म लड़का (घर का वंश चलाने वाला) पाने की चाह में ही हुआ। धर्म मर्यादा के कई प्रचारक कहते सुने गये हैं कि पति चाहे बूढ़ा- बदसूरत, अमीर या गरीब हो परन्तु एक स्त्री की दृष्टि में वह उत्तम होता है। गरीब, बेवकूफ, कोढ़ी जैसे पति की सेवा करने वाली स्त्री अक्षय लोक को प्राप्त करती है।नौकरी उपलब्ध करवाने वाले बाज़ार में महिला कर्मचारी पुरुष कर्मचारी की अपेक्षा निम्न आंके जाने का चलन आज के विकासशील समाज में भी मौजूद है, कितने ही बेतुके जुमले कहे सुने जाते हैं। कहा जाता है कि महिलाएं तनाव में काम नहीं कर पातीं। उन्हें किसी कम्पनी/दफ्तर के काम से बाहर भेज पाना भी एक परेशानी है। घर के काम के साथ दफ्तर का काम उनसे सम्भलता नहीं। एक पर ध्यान केन्द्रित करती हैं तो दूसरा छूट जाता है। यह मानसिक परेशानी उनके कार्य पर कुप्रभाव डालती है। वे निर्णय लेने के समय भावुक हो जाती हैं। दफ्तर या कार्य स्थल पर कुछ देर ज्यादा रुकने के लिए कह दिया जाये तो मुसीबत खड़ी हो सकती है। ऐसे और भी मनगढ़ंत, बेसिर पैर के तर्क उनके लिए बराबर अवसर नहीं देने के लिए तैयार रखे जाते हैं। आगे जाकर ऐसी सोच सामाजिक असमानता का कारण बन सकती है। ये तमाम धारणाएं कोई पुख्ता आधार नहीं रखतीं। अवसर मिलने पर महिलाओं ने सभी क्षेत्रों में अपनी कार्यक्षमता, अपने सद्भाव, अपने कुछ कुदरती गुणों के आधार पर समस्याओं का निपटारा किया है। जब यह मान लिया गया है कि स्त्री को आर्थिक सशक्तिकरण की ज़रूरत है तब उसके लिए कुतर्क त्याग कर क्यों न और दरवाज़े-खिड़कियां खोली जाएं। क्यों कार्पोरेट सैक्टर में उनकी हिस्सेदारी 17 प्रतिशत तक ही सीमित रहे। नौकरी उपलब्ध करवाने वाले संसाधन यदि पूर्वाग्रह से ही काम लेते रहेंगे तो उनको समानता के धरातल पर और ज्यादा संघर्ष करना पड़ सकता है। उन्हें उपेक्षा की जगह विश्वास की जगह विश्वास की ज़रूरत है।