मैं गद्दार तो नहीं हूं

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किस्सा कोताह यह, कि अश़फाक बेशक उसका मौजूदा खाविंद है परन्तु खानदानी लकीरों की दोहरागर्दी में अश़फाक उसकी अम्मी के तीसरे शौहर सिकन्दर हयात के चचाजाद भाई मकबूल की दूसरी ब़ेगम का बेटा है। इससे उसके दो निकाह हो चुके हैं और दोनों बार ही उसे तलाक दिया गया। हर तलाक के बाद उसे किसी और के साथ निकाह में बंधना पड़ा, और अश़फाक के साथ अगला निकाह करने से पहले दौर-ए-इद्दत में किसी ़गैर-मर्द के साथ हम-बिस्तर भी होना पड़ा है, लेकिन इस बार अश़फाक ने जो किया, वह उसे बेहद नागवार गुज़रा था। उसने बेंत से उसे बेवजह और बेतरहा पीटा था। उसके सारे शरीर पर नीले-पीले निशान पड़ गये। असल में अश़फाक की आंखों में वह कई दिनों से अपने तईं टूटे हुए भरोसे की किरचें देख रही थी। उसकी शक-ओ-शुबहा से लबरेज़ नज़रें जैसे उसके भीतर तक घुस गई थीं। कई दिन पहले से ही अश़फाक की आंखों पर चरबी चढ़ते हुए वह लगातार देख रही थी।
आखिर एक दिन बिल्ली थैले से बाहर आ ही गई। उस दिन से पहले वाली आधी रात के बाद अश़फाक ने बेंत से उसे बेतरहा से पीटा था...बिना कोई कारण बताये। इस तरह का बेंत इस घर के हर कमरे की किसी एक दीवार के साथ सजा/लटका हुआ मौजूद रहता है। इस घर के हर मर्द को, घर की हर औरत को बेंत से पीटने का जैसे ह़क हासिल रहता है। पिटने वाली औरत चीखने या आवाज़ निकालने की जुर्रअत भी नहीं कर सकती जैसे कि यह उसके मुकद्दर का ही एक हिस्सा हो।
अश़फाक ने बताया था कि पाकिस्तान से एक ़खास मेहमान आ रहे हैं। नाम है ़फहीम यार खां। पाकि फौज में पोशीदा आला अफसर हैं। काम के आदमी हैं। वह चाहता था, कि उसके आने पर वह उसे तलाक दे दे और इसके बाद उसे ़फहीम यार खां से निकाह करवाना होगा—बीस लाख रुपये की हिन्दुस्तानी करंसी में मेहर के एवज में।
उसने इस प्रकार के वतन और ़कौम की ़िखल़ाफत करने वाले काम को करने से स़ाफ इन्कार कर दिया था। एक तो वह इस बार-बार के तलाक-नामों और निकाहनामों से आजिज़ आ चुकी थी। दूसरे, अपने मुल्क से हो रही इस ़गद्दारी को लगातार देखते और फिर धीरे-धीरे इसका हिस्सा बनते जाने से भी वह तंग आ गई थी। वह इस सबसे निजात हासिल करना चाहती थी। उसके मुंह से इन्कार शब्द के निकलने का एक सबब भी शायद यही रहा हो, परन्तु इतना भर होने से ही अश़फाक ने उसे इस बेतरहा से पीटा, कि उसके ज़ख्मों के भीतर से अभी भी चीसें निकल रही हैं।
उसके भीतर अश़फाक के लिए ऩफरत की तेज़ हवा बही थी। इसके बावजूद उसने तरस और रहम की भावना को अपनी आंखों में भरते हुए उसकी ओर देखा था परन्तु उन आंखों में अभी भी एक शातिर कारोबारी चमक ही आसमानी बिजली बन कर उभरी थी। निहायत घटिया किस्म की कमीनगी और बेहयाई वाली हंसी का मुज़ाहिरा करते हुए उसने उसकी ठुड्डी को अपने दाहिने हाथ से ऊपर उठाते हुए कहा था—बस, दो-चार दिनों की तो बात है आयशा जानू! इसे बस आखिरी मर्तबा समझो। कसम से, दोबारा ऐसा कभी नहीं होने दूंगा। फिर यह भी तो सोचो न, कि कितनी बड़ी रकम होती है यह बीस लाख रुपये। ईनाम-इकराम और दीगर तोहफे इससे अलहिदा होंगे। ये सब तुम्हारे...मेरा मतलब है, हमारे होंगे।
अश़फाक ऐसे लारे पहले भी कई मर्तबा लगाता रहा है, किन्तु फिर कोई न कोई नई मांग लेकर ज़िद पर अड़ जाता रहा है। इसके बाद अश़फाक ने उसकी रज़ामंदी लिये बिना तीन बार तलाक शब्द बोला था, और एकदम से वह अगले ही पल अपने-आप तलाक-याफ़्ता हो गई थी।
इतना सब कुछ हो जाने के बाद उसे यह तो इल्म हो गया था, कि उसके अगले निकाह की रस्म आज की रात के खत्म होने से पहले ही मुकम्मल हो जाएगी, क्योंकि उसे इस बात की कनसोअ भी मिल चुकी थी, कि ़फहीम यार खां नीचे मेहमानखाना में तशरीफ ला चुका था। इसकी ़खबर उसे घर की ही एक नौकरानी रेशमा चुपके से दे गई थी। फिर अश़फाक के चेहरे पर उतरी शातिराना हंसी भी ऐसा ही कुछ ब्यान कर रही थी। ऐसे में, चुपचाप अपनी रज़ामंदी दे देने के अलावा उसके पास दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था।
 

(क्रमश:)