पर्यावरण को शुद्ध रखने हेतु नसीहत की बजाय क्रियान्वयन की ज़रूरत

 

प्रति वर्ष जून में विश्व पर्यावरण दिवस एक परम्परा निभाने की तरह मनाया जाता है। इसकी शुरुआत सन् 1972 में संयुक्त राष्ट्र के स्टॉकहोम अधिवेशन में हुई थी। इसे सामान्य नागरिक को स्वस्थ वातावरण देने और उसका बुनियादी अधिकार मानने के संकल्प की तरह देखा गया। हर साल एक थीम चुना जाता है और उसके अनुसार दुनिया भर में जागरूकता फैलाने के लिए कार्यक्रम बनाये जाते हैं और एक रस्म अदायगी के बाद भुला दिया जाता है। इस बार भी प्लास्टिक के नुकसान और उससे होने वाले प्रदूषण को समाप्त करने का थीम रखा गया।
कथनी और करनी
हकीकत यह है कि दुनिया कुछ भी कहे और प्लास्टिक की जितनी चाहे बुराई कर ले, प्लास्टिक का इस्तेमाल रुकने वाला नहीं है। कारण यह है कि चार सौ मिलियन टन वार्षिक इसका उत्पादन होता है। दस प्रतिशत से भी कम रिसाइकल होता है, कुछ समन्दर में चला जाता है और शेष अपना घातक प्रभाव छोड़ता जाता है।
बताते हैं कि इन्सान हर साल लगभग पचास हज़ार माइक्रो प्लास्टिक के कण उपभोग करता है यानी खा जाता है, जो सेहत के लिए हानिकारक है। यह बात इसलिए बताई गई है कि जब उत्पादन बंद नहीं होगा तो किस मुंह से प्लास्टिक के दुष्प्रभावों से बचने की बात की जाती है। कुछ दिन पहले सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल बंद करने की बात सुनाई दी थी जो अब हवा हवाई हो चुकी है और धड़ल्ले से इसका पहले से भी ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है, क्योंकि इसका उत्पादन बढ़ रहा है।
पर्यावरण की व्याख्या
पर्यावरण या वातावरण को सीधी तरह समझा जाये तो यह और कुछ नहीं बल्कि प्र से प्राकृति का आवरण या पर्दा है जो संसार के सभी जीवधारियों की सुरक्षा के लिए बना है। इसी प्रकार वातावरण का वात या वायु का आवरण या पर्दा है जो जीवन को बचाए रखता है, क्योंकि हवा न हो तो सांस नहीं ले सकते और जीवन समाप्त।
कुदरत ने हमारी रक्षा के लिए अपने आवरण के ज़रिए उन सब चीजों का प्रबंध किया, जो ज़रूरी हैं। हमने क्या किया, इस पर्दे को जितना हो सके नष्ट करने का काम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रकृति का सिद्धांत है कि सभी जीव, पेड़-पौधे जन्मते हैं और मृत होते हैं और संसार चलता रहता है।
प्रकृति ने अपने आवरण के बाहर यानी अंतरिक्ष, धरती और नीचे ऐसी व्यवस्था की जहां इन्सान की पहुंच नहीं थी लेकिन ये सब उसके जीवन के लिए अनिवार्य थीं। विज्ञान ने इन जगहों पर भी जाना संभव कर दिया। यहां तक सब ठीक था क्योंकि प्रगति के लिये टेक्नोलॉजी चाहिए थी। कृषि हो, उद्योग हो, व्यापार हो, संचार और आवागमन के साधन हों, उर्जा का उत्पादन हो, नई चीज़ों की खोज हो, अनुसंधान हो, मतलब यह कि समृद्धि और सम्पन्नता हमारी आवश्यकता बन गई जिसमें कोई बुराई नहीं थी। तो फिर गलती कहां हुई, जो आज मनुष्य प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग और ऐसे ही दूसरे संकटों से घिरा हुआ है। साफ  हवा, शुद्ध जल और भोजन के लिए तरसने की हद तक जा पहुंचा है।
कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करते हैं। जहां जाना संभव न था, उसे संभव किया, जैसे कि अंतरिक्ष के रहस्य जानने के लिए उपग्रह, यान, रॉकेट और अन्य उपकरण भेजे जिनकी संख्या लगभग चार हज़ार हो चुकी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस सबसे संवाद, संचार के साधन मिले, बहुत से रहस्यों से पर्दा उठा और मनुष्य चांद और मंगल ग्रह पर आशियाना बनाने की बात भी सोचने लगा। तो फिर गलती क्या थी? एक अनुमान के मुताबिक लगभग बाईस हज़ार टन कचरा आकाश में जमा हो चुका है और जो कभी-कभी किसी रहस्यात्मक वस्तु के रूप में धरती या समुद्र में गिरता दिखाई दे रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि कई नष्ट हो गए और अपनी उपयोगिता समाप्त कर चुके उपकरणों का यह कचरा पृथ्वी पर इन्सान की अनेक मुसीबतों के लिए ज़िम्मेदार है।
प्रश्न यह है कि क्या वैज्ञानिकों ने यह नहीं सोचा होगा कि इस आकाशीय कचरे को निपटाने की क्या विधि होनी चाहिये ताकि मानव जीवन पर संकट न आए?
पृथ्वी पर आते हैं। आने-जाने के लिए पेट्रोल-डीज़ल की गाड़ियां तो बन गईं और एक स्थान से दूसरी जगह जाने के साधन सुलभ हो गये लेकिन गाड़ियों से निकलने वाले धुएं ने जीना भी मुश्किल कर दिया। क्या वैज्ञानिकों ने वाहन की अच्छाई के साथ साथ धुएं की बुराई से निपटने के बारे में नहीं सोचा होगा?
खेतीबाड़ी में रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है और अगर यह ज़रूरत से ज्यादा हो जाये तो कृषि उपज का ज़हरीला होना लाज़िमी है। इसी तरह पशु पालन, डेयरी उद्योग, फूड प्रोसेसिंग, डिब्बाबंद चीजें हैं जो हमारी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। इनमें भी केमिकल का इस्तेमाल होता है जो इन्हें लम्बे समय तक इस्तेमाल करने लायक बनाये रखता है। इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कानून भी हैं, लेकिन फिर भी नकली, मिलावटी, दूषित और अपौष्टिक खाद्य पदार्थों के सेवन से लोगों का जीवन संकट में पड़ जाता है। लोग बीमारियों का शिकार होते हैं, उनका स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है। क्या यह सब रोकने का उपाय है? ज़रूर है लेकिन उसके लिये विज्ञान के साथ-साथ समाज और कानून की भी भूमिका है। प्रश्न यह है कि जीवन को मौत तक देने वाले मिलावटियों को मृत्यु दंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए?
इसी तरह उद्योगों से निकला विषैला रसायन नदियों और दूसरे जल स्रोतों को ज़हरीला बना देता है। विज्ञान ने इसके लिये पूरी व्यवस्था की है लेकिन ऐसे उद्योगों को चलने ही क्यों दिया जाता है जिनके लिए न तो वैज्ञानिक तरीकों का कोई अर्थ है और न ही कानून का डर है।
हवा, पानी का प्रदूषण ही नहीं, युद्धों में घातक हथियारों से लेकर अणु बम के इस्तेमाल से पूरा पर्यावरण दूषित होता है। इनसे निकले विषैले रसायन बहुत विनाशकारी होते हैं और इनका असर पीढ़ी दर पीढ़ी तक रहता है। लड़ना या न लड़ना युद्ध में लिप्त देशों पर निर्भर है, लेकिन जब आधुनिक हथियारों की परख के लिए किसी भी देश की भूमि का इस्तेमाल होता है तो इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ना निश्चित है।
प्रकृति ने निषेध के रूप में ऐसे स्थानों की व्यवस्था की जो मनुष्य के लिए वरदान हैं, लेकिन उनसे छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं। इनमें पर्वत शृंखलाएं, बर्फ  के ग्लेशियर, नदियों के उद्गम स्थल, घने और लाभकारी जड़ी-बूटियों से भरे वन, वन्य जीव, समुद्र के तल में विद्यमान अनेक उपयोगी जीव और रहस्य तथा रोमांच से भरे ऐसे स्थल जो दिव्य और अलौकिक कहे जा सकते हैं।
 यदि मनुष्य उन्हें देखने और उनके अनुपम सौंदर्य का आनंद उठाने तक ही सीमित रहता तो भी गनीमत थी। हमने उन्हें बसने और मनोरंजन के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इसका अर्थ प्रकृति के काम में रुकावट डालना है। जब मनुष्य ही अपने काम में किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करता तो कुदरत कैसे यह सहन करती। परिणामस्वरूप प्रकृति का प्रकोप विभिन्न रूपों में प्रकट होने लगा। इससे बचने का एकमात्र उपाय यही है कि प्राकृतिक संसाधनों का गलत इस्तेमाल न हो। यही तालमेल है जो कतई मुश्किल नहीं है। पर्यावरण बचाये रखने का यही उपाय है।