मैं, मेरे अध्यापक और विद्यार्थी

मैंअपनी उम्र के नब्बे वर्ष व्यतीत कर चुका हूं। सरकारी तथा गैर-सरकारी नौकरियां भी कीं और पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में पत्रकारिता तथा जनसंचार का अध्यापक भी रहा। ताज़ा बात का संबंध अध्यापन समय से है। मेरे अध्यापन काल में यूनिवर्सिटी के उपकुलपति डा. जसपाल सिंह थे, जो नई दिल्ली वाले कवि तथा अध्यापक हरिभजन सिंह के विद्यार्थी रह चुके थे तथा मेरी हरिभजन सिंह के साथ निकटता के कारण मुझे भी अपने अध्यापकों जैसा सम्मान देते थे। मुझे पंजाबी यूनिवर्सिटी का फैलो नियुक्त करने वाले वही थे जिनका अधिकारी मैं आज तक चला आ रहा हूं, परन्तु आज की बात एक अन्य तरह से बने विद्यार्थियों बारे है। 
मेरी यूनिवर्सिटी के बैंक वाली पास बुक बननी थी। आयु मेरे चंडीगढ़ से पटियाला के सफर में बाधा बनी हुई थी। अचानक ही मेरे स्वर्गीय मित्र सुरजीत हांस के विद्यार्थी गुरनायब सिंह का फोन आ गया। वह निकट ही अर्बन एस्टेट में रहता है। उसके कहने पर मैंने उसे पुरानी पास बुक का संबंधित पृष्ठ व्हाट्स एप पर भेज दिया। उसने नई पास बुक बनावा कर भेज दी। काम आसान नहीं था। बैंक वाले आनाकानी कर रहे थे। उसके एक वाक्य ने चुप करवा दिए। वह यह कि मैं उसका अध्यापक रह चुका हूं। सुरजीत हांस का विद्यार्थी मेरा भी विद्यार्थी था। क्यों न होता? मैं हांस का मित्र जो था।
एक और बात इससे बड़ी कि मैं सिर्फ चार वर्ष अध्यपाक रहा, परन्तु वहां पत्रकारिता पढ़ने वाले चरणजीत भुल्लर तथा देवी दविन्द्र जैसे बहुत पुराने तथा बहुत नये विद्यार्थी भी अपने-आपको मेरा विद्यार्थी कह कर मुझे नवाज़ते हैं। है कि नहीं अध्यापक तथा विद्यार्थी रिश्ते का कमाल। 
एक बहुत पुरानी एवं सच्ची घटना, 1947 की। मैं खालसा हाई स्कूल माहिलपुर में 9वीं कक्षा का छात्र था। मित्रों के कहने पर चुनिंदा विषयों में साइंस ले बैठा। अपनी पकड़ से बाहर का विषय। एक दिन साइंस अध्यापक बख्तावर सिंह ने कोई प्रश्न पूछा। मुझे उत्तर न आया। वह मुझे विषय बदलने की सलाह देने लगे। कक्षाएं लगते हुए चार माह बीत चुके थे। विषय बदलाने की ज़िम्मेदारी उन्होंने सम्भाल ली और मेरे साथ जाकर मुझे पंजाबी पढ़ने वालों की कक्षा में बिठा आए। सैकेण्ड अध्यापक थे। सभी मान गए। मुझे पंजाबी के मार्ग पर चलाने वाले मेरे साइंस अध्यापक थे। पंजाबी लेखक बनने की नींव रखने वाले भी। आज के अध्यापकों का अपने विद्यार्थियों के साथ ऐसा रिश्ता नहीं बनता। राह में बाधाएं हैं; मशीनें, इंटरनैट तथा मोबाइल। 
गुरशरण सिंह नाटककार तथा शिष्य
पंजाबी रंच-मंच को समर्पित नाटककारों में से गुरशरण सिंह द्वारा शिक्षित शिष्य उनके नाम की मशाल उनके निधन के बाद भी जलाए रखते हैं। स्वयं स्थापित की गई सचेतक रंग मंच संस्था के माध्यम से, जिसके शब्द प्रकाश फैलाते हैं :
‘मशालां बाल के रखना जदों तक रात बाकी है।’ साहित्य चिन्तन वाला सरदारा सिंह प्रत्येक माह कोई न कोई गोष्ठी करवाते हैं और अनिता सब्दीश जोड़ी नाटक उत्सव या मेल-मिलाप। वह जोड़ी अपना पता ठिकाना तो बदलती रहती है, परन्तु उसकी याद को श्रद्धा के फूल भेंट करना नहीं भूलती। उसकी पुण्यतिथि या जन्मदिन को आधार बना कर। अब जबकि उन्होंने अपना स्थायी ठिकाना मोहाली के 70 सैक्टर में बना लिया है तो वहां क्षेत्रवासियों को अभिनय भी सिखाते हैं और गुरशरण  सिंह सहित उनके साथियों जोगिन्दर बाहरला तथा देबी मख्सूसपुरी को भी याद करते हैं। पंजाब कला परिषद के आंगन में गुरशरण सिंह नाट्य उत्सव मनाने की घोषणा तो डेढ़ माह पहले ही कर चुके हैं। उनकी बेटी अरीत तो आंखों के मरीज़ देखती हैं, पर अनिता तथा सब्दीश गुरशरण सिंह की मशाल को जलाए रखना नहीं भूलते। शिष्य हों तो ऐसे।     
पंजाबी काव्य अंग्रेज़ी भाषा 
निकसुक के आंगन में मदन वीरा की चुनिंदा कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद पहुंचना एक नई बात है। तरलोक चंद घई का उद्यम बहुत कुछ कहता है। प्रताड़ितों का वृत्तांत तथा पंजाबी भाषा का विस्तार भी। भाखिया (2001), नाबरां की इबारत (2009), तंद ताणी (2011), खारा पानी (2013) तथा घेरे से बाहर (2022) तक का सफर। यह अनुवाद मूल लेखक का अनुसरण भी करता है और उडारी भी जानता है। रचनाकारी में सुहज, सौंदर्य तथा सहज है। इसे मातृ भाषा से बाहर की भाषा में पिरोना आसान नहीं, परन्तु अनुवादक ने किया अवश्य है। स्वागत करना बनता है। होशियारपुरियों की सरज़मीं कह कर!
अंतिका
(वनीता की ‘मुरकीयां’ में से)   
की होया जे कैंची हैं तूं 
जाणदी कट्टणा कटाऊणा।
सूई धागा हां मैं वी 
जाणदी सिऊणा सिवाऊणा।