पंजाबी सूबा के मौजूदा सरोकार : लोगों में नया विश्वास और उम्मीद जगाने की ज़रूरत

एक नवम्बर, 1966 को अस्तित्व में आए पंजाबी राज्य ने अपने स़फर के 52 वर्ष पूरे कर लिए हैं। यह दिन हमें उन बहादुर पंजाबियों ़खास तौर पर सिख आन्दोलनकारियों की याद दिलाता है, जिन्होंने पंजाबी राज्य की स्थापना के लिए लम्बा संघर्ष लड़ा। पुलिस अत्याचार सहन किए, जेलें काटीं और शहीदियां प्राप्त कीं। इस राज्य की प्राप्ति के लिए 42 के लगभग पंजाबी शहीद हुए थे। इस दिन उनको अवश्य याद किया जाना चाहिए। पंजाबी राज्य के इस लम्बे स़फर पर जब पीछे की ओर नज़र दौड़ाएं तो यह बात उभर कर सामने आती है कि जिस बड़े उद्देश्य के लिए इस राज्य की स्थापना करवाई गई थी, वह उद्देश्य आज भी पूरे नहीं हुए। न तो पंजाबी भाषा के आधार पर अस्तित्व में आए इस राज्य में शिक्षा, प्रशासन और न्याय के क्षेत्र में पंजाबियों की मातृ भाषा को बनता मान-सम्मान मिला है और न ही आर्थिक क्षेत्र में पंजाबियों के स्वप्न पूरे हुए हैं। इस कारण आज पंजाबियों में निराशा का आलम है। ऋण के जाल में फंसे किसान और मज़दूर आत्महत्याएं करने के लिए मजबूर हैं और नौजवान यहां अपना कोई भविष्य न देख कर उच्च शिक्षा हासिल करने के बहाने यहां से बड़े स्तर पर पलायन कर रहे हैं। जिन परिवारों के पास अपने नौजवान बच्चों को ़गैर-सरकारी शिक्षक संस्थानों से महंगी शिक्षा दिलाने के लिए वित्तीय साधन नहीं हैं, उन परिवारों के नौजवान छोटे-मोटे काम-धंधे करके ज़िन्दगी को आगे चलाने का प्रयास कर रहे हैं। सरकारी स्कूलों, सरकारी कालेजों और यूनिवर्सिटियों से सरकारों द्वारा हाथ पीछे खींच लेने के कारण इनके लिए उच्च शिक्षा देना तो दूर अस्तित्व कायम रखना भी मुश्किल हुआ पड़ा है। ़गरीब परिवारों में कुछ परिवारों के नौजवान दिशाहीन होकर अपराध की दुनिया में भी प्रवेश कर रहे हैं। नशा करना और नशा बेचना, बैंक लूटना, वाहन छीनना, पैट्रोल पम्प लूटना, ए.टी.एम. लूटने और झपटमारी करके महिलाओं से आभूषण लूटने का सिलसिला इस कारण राज्य में बढ़ता जा रहा है। औद्योगिक क्षेत्र में भी हालत निराशाजनक ही हैं। खाड़कूवाद के समय के दौरान उद्योग को भारी धक्का लगा था। इसके बाद राज्य की सरकारों और केन्द्र सरकारों ने उद्योग को उभारने के लिए कोई बड़े प्रयास नहीं किए, अपितु विपरीत हुआ यह कि श्री अटल बिहारी वाजपेयी की केन्द्र सरकार के समय राज्य के पड़ोसी पहाड़ी राज्यों को औद्योगिक विकास के लिए बड़ी रियायतें दी गईं, जिससे जहां उद्योग का बड़ा हिस्सा पड़ोसी राज्यों को पलायन कर गया। पैदा हुई इन सभी स्थितियों की पृष्ठ भूमि पर अगर हम नज़र दौड़ाएं तो यह बात उभर कर सामने आती है कि विगत 52 वर्षों में राज्य में जिन पार्टियों ने शासन किया है, उनके पास इस सीमांत राज्य के सरोकारों बारे स्पष्ट दृष्टिकोण और प्रतिबद्धता की कमी रही है। चाहे इस दौर में बनी सरकारों ने कुछ अच्छे काम भी किए हैं, परन्तु समय की साथी बन कर वह विकास को उचित गति नहीं दे सकीं।  दूसरी बात यह भी महसूस होती है कि राज्य में आई हरित क्रांति के बाद कृषि आधारित उद्योगों का विकास करने हेतु केन्द्र सरकारों ने राज्य सरकारों को बनता सहयोग नहीं दिया। इस कारण पंजाब की कृषि आधारित आर्थिकता उद्योग आधारित आर्थिकता में तबदील नहीं हो सकी। इस तरह से केन्द्र की नीतियां राज्य को कच्चे माल की मंडी बना कर रखने तक ही सीमित रही हैं। इसका परिणाम यह निकला कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज़मीनें बंट गईं। अधिकतर किसानों के पास कम ज़मीनें रह गईं। उनके परिवारों का कृषि से गुज़ारा होना मुश्किल हो गया और राज्य में कृषि आधारित उद्योग और अन्य उद्योग बड़े स्तर पर न लगने के कारण उनके लिए रोज़गार के नए अवसर पैदा नहीं हो सके। इसी कारण ही राज्य में किसानों और खेत मज़दूरों की आत्महत्याएं हो रही हैं। इसी कारण नौजवान वर्ग यह महसूस कर रहा है कि उसका यहां कोई भविष्य नहीं है। किसी राज्य के राजनीतिक, आर्थिक और सभ्याचारक विकास के लिए लोगों की क्षेत्रीय भाषा का भी विशेष योगदान होता है। विशेष तौर पर लोगों को काम-धंधे सिखा कर किसी न किसी रोज़गार पर लगाने हेतु क्षेत्रीय भाषा अहम भूमिका अदा करती है। शिक्षा हासिल करवाने में भी क्षेत्रीय भाषा का बड़ा महत्त्व होता है। पंजाब में हुआ यह कि शिरोमणि अकाली दल ने लम्बा और कठिन संघर्ष करके पंजाबी राज्य तो बनवा लिया परन्तु शिक्षा, प्रशासन और न्याय के क्षेत्र में लोगों की भाषा को लागू करवाने के लिए उस समय प्रभावशाली कानूनों का निर्माण नहीं किया गया। दलबदली करके सरकार बनाने वाले लछमण सिंह गिल को इस बात का श्रेय ज़रूर जाता है कि उन्होंने अपनी सरकार के समय पंजाबियों की मातृ भाषा पंजाबी को शिक्षा और प्रशासन के क्षेत्र में लागू करने के लिए भाषायी एक्ट बनाया था। चाहे इससे कुछ सीमा तक प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में पंजाबी को स्थान मिला परन्तु पूर्ण तौर पर किसी राज्य के लोगों की भाषा का जो महत्त्व होना चाहिए था, वह महत्त्व पंजाबी को नहीं मिल सका। लेखकों और बुद्धिजीवियों के संगठन इसके लिए आवाज़ बुलंद करते रहे हैं परन्तु राज्य की अधिकतर पार्टियों का व्यवहार इस संबंधी उदासीनता वाला ही रहा। 2008 तक आते जब यह मुद्दा काफी भड़क गया तो अकाली-भाजपा सरकार ने राज्य के भाषा एक्ट में एक बार संशोधन करके इसको पहले से थोड़ा प्रभावशाली बनाने का प्रयास किया। परन्तु इसके बावजूद शिक्षा, प्रशासन और न्याय के क्षेत्रों में पंजाबी को वाज़िब स्थान नहीं मिला। क्योंकि इस एक्ट में कानून की उल्लंघना करने वालों को सज़ाएं देने के लिए प्रभावी व्यवस्था नहीं की गई थी। दूसरी बात यह भी है कि राज्य की अधिकतर राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता यह समझने में असमर्थ रहे हैं कि भारत भाषायी विभिन्नता  के आधार पर एक बहुराष्ट्रीय देश है और पंजाबी राष्ट्रीयता के बहुपक्षीय विकास के लिए सभी राजनीतिक क्षेत्रों में पंजाबी को लागू करना ज़रूरी है। इस संबंधी सबसे अधिक उम्मीद शिरोमणि अकाली दल की सरकारों से थी। क्योंकि इस पार्टी के लम्बे संषर्ष के कारण ही पंजाबी राज्य अस्तित्व में आया था। उस से यह उम्मीद की जाती थी कि वह पंजाबी राष्ट्रीयता के भाषा के सरोकारों को सही संदर्भ में समझकर इस संबंधी अच्छी नीतियां बनाता। लेकिन अब महसूस यह हो रहा है कि शिरोमणि अकाली दल के नेताओं के सामने पंजाबी राज्य बनाने के पीछे ज्यादा उद्देश्य यह रहा है कि एक ऐसा राज्य हासिल किया जाए, जिसमें सिख भाईचारे की बहु-संख्या हो और इसके आधार पर वह राज्य में अपनी सरकार बना कर चला सकें। परन्तु वह यह भूल गए कि अच्छी कारगुज़ारी के बिना तो सिख भी उनको वोट नहीं देंगे। फिर भी कुछ सीमा तक जब उनका यह उद्देश्य पूरा हो गया तो उन्होंने पंजाब के समूह लोगों को पंजाबी राष्ट्रीयता का अंग महसूस करते हुए उनके भाषायी सरोकारों के विकास के लिए उचित प्रयास नहीं किए। इसके परिणामस्वरूप आज जहां पंजाब आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ता जा रहा है, वहीं भाषायी सरोकारों के पक्ष से भी पीछे रह गया है। पंजाबी राज्य की इस 53वीं वर्षगांठ पर हमारे समक्ष अहम सवाल यह है कि पंजाब को इस निराशाजनक स्थिति में से  कैसे उभारा जाए? लोगों में उम्मीद की किरण कैसे जगाई जाए? राज्य की कृषि, उद्योग, स्वास्थ्य और शैक्षणिक क्षेत्रों से संबंधित संस्थानों को समय के अनुसार कैसे बनाया जाए? समूचे तौर पर राज्य के नौजवानों के लिए रोज़गार के अवसरों में कैसे बढ़ावा किया जाए? और शिक्षा, प्रशासन और न्याय के क्षेत्र में पंजाबी भाषा को लागू करके लोगों के भाषायी अधिकारों की रक्षा कैसे की जाए? इस उद्देश्य के लिए पंजाब को किसी प्रतिबद्ध राजनीतिक पार्टी और उसके प्रतिबद्ध नेतृत्व की ज़रूरत है। जिस तरह से पिछले लम्बे समय से कांग्रेस, अकाली दल और भाजपा आदि पार्टियां शासन करती आ रही हैं, उसी कारण उनसे लोगों को कोई अधिक उम्मीदें नहीं हैं। इसी कारण ही राज्य में निराशा का माहौल है। सही शब्दों में पंजाब के उपरोक्त सभी संकट उपयुक्त नेतृत्व के अस्तित्व में से ही उभरे हैं।, इसलिए, पंजाब को फिर से रास्ते पर लाने के लिए और पंजाबी राज्य के उद्देश्य की पूर्ति के लिए पंजाबियों को अपने में से योग्य लीडरशिप उभारनी पड़ेगी। कोई बनी-बनाई लीडरशिप बाहर से आकर पंजाब के मामले हल नहीं कर सकती। न ही केन्द्र सरकार पंजाब पर इतनी मेहरबानी करेगी कि राज्य के यह सभी मामलों को समझ कर उनको सुलझाने में राज्य की सहायता करने के लिए आगे आ जाए। परीक्षा सिर्फ राजनीतिक पार्टियों की ही नहीं है, अपितु राज्य के लोगों की भी है। अगर राज्य के स्वयं योग्य लीडरशिप उभारने में असफल रहे तो पंजाब को वर्तमान पतनशील स्थिति में से कोई भी नहीं निकाल सकेगा।विशेष तौर पर शिरोमणि अकाली दल, जिसने भाषा के आधार पर इस राज्य की स्थापना के लिए संघर्ष किया था, उनको अपने भीतर विशेष तौर पर झांकने की आवश्यकता है। खाड़कूवाद के दौर के बाद उसने लगभग 15 वर्ष शासन किया है। अगर उसके पास अच्छा दृष्टिकोण होता और इसके साथ ही उसके पास अपनी जन्म भूमि और कर्म भूमि के लिए अतीत काल जैसी प्रतिबद्धता होती तो वह पंजाब को उपरोक्त सभी संकटों में से निकाल सकते थे और राज्य के भाषायी सरोकारों  की डट कर रक्षा भी कर सकते थे। शिरोमणि अकाली दल ने खाड़कूवाद के दौर के बाद एक तरह से स्थितियों को जैसे का तैसा बनाए रख कर (Status quo) में शासन करने का प्रयास किया है। बुनियादी ढांचे के विकास के लिए और राज्य में ऐतिहासिक और धार्मिक यादगारों को बनाने के लिए उसने कुछ महत्त्वपूर्ण काम तो किए हैं और कुछ बड़े शैक्षणिक संस्थान भी कायम करवाए हैं परन्तु राज्य की कृषि को और उद्योग को नई दिशा देकर राज्य में रोज़गार के अवसर बढ़ाने में वह सफल नहीं हो सका। इसके साथ ही सिख अल्प-संख्यक के धार्मिक सरोकारों की रक्षा करने में भी वह पूरी तरह सफल नहीं हो सका। वर्तमान स्थितियों में अगर वह स्वयं को पंथ और पंजाब के प्रति पुन: स्थापित करके अपनी नीतियों को नई दिशा नहीं देता तो उसका अस्तित्व और उसकी लीडरशिप को आने वाले समय में और भी बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा और दूसरी तरफ पंजाब के समूचे सरोकारों के लिए पंजाबियों को किसी और उचित विकल्प की तलाश करनी पड़ेगी। योग्य लीडरशिप ही लोगों में नया विश्वास और नई उम्मीद पैदा कर सकती है।