भाजपा की कठिन परीक्षा लेंगे उत्तर पूर्व के तीन विधानसभा चुनाव

 

चुनाव आयोग ने 18 जनवरी 2023 को अधिकारिक तौर पर इस साल के लिए चुनाव कार्यक्रम का श्रीगणेश कर दिया है। उत्तरपूर्व के तीन राज्यों में फरवरी में मतदान होगा और मतगणना 2 मार्च के लिए निर्धारित की गई है। त्रिपुरा में 16 फरवरी को और नागालैंड व मेघालय में 27 फरवरी को मतदान कराया जायेगा। इन तीनों राज्यों की विधानसभाओं में 60-60 सीटें हैं और कुल मतदाता 62.8 लाख हैं, जिनमें से सबसे ज्यादा 28.1 लाख त्रिपुरा में हैं और मेघालय व नागालैंड में क्रमश: 21.1 लाख व 13.1 लाख मतदाता हैं। 2018 के चुनाव में भाजपा ने त्रिपुरा में अकेले दम सरकार बनायी थी और नागालैंड व मेघालय में वह अपने क्षेत्रीय सहयोगियों की जूनियर पार्टनर थी। हालांकि हाल ही में अपने कार्यकाल का विस्तार पाने वाले भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पार्टी का लक्ष्य इस वर्ष 9 राज्यों में होने वाले सभी विधानसभा चुनावों को जीतने का रखा है यानी वह स्कोर 9-0 चाहते हैं, लेकिन सबसे पहले उत्तरपूर्व में ही उन्हें कड़ी परीक्षा से गुजरना होगा।
भाजपा की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह उत्तरपूर्व के लिए अपने विकास नैरेटिव को प्रोत्साहित करे और क्षेत्रीय पार्टियों के साथ समझदारी वाला चुनावी गठबंधन करे। लेकिन इस समय उसके समक्ष अनेक चुनौतियां हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि वह उत्तरपूर्व के अंतर-राज्य सीमा विवादों में बुरी तरह से फंसी हुई है। उत्तर पूर्व एक ऐसा क्षेत्र है जो आज भी प्राकृतिक संसाधनों पर बहुत अधिक निर्भर है और उसमें देशज पहचान की भावना गहराई तक समायी हुई है। यह भावनात्मक मुद्दा है जिसकी वजह से भाजपा की एक सरकार अपनी ही दूसरी सरकार के सामने खड़ी हुई है। जाहिर है प्रतिद्वंदी पार्टियां इस मुद्दे से राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास करेंगी।
उत्तर पूर्व की क्षेत्रिय पार्टियों में यह एहसास घर करता जा रहा है कि भाजपा उनकी कीमत पर अपना विस्तार कर रही है। यही वजह है कि भाजपा और एनपीपी नैशनल पीपल्स पार्टी, के संबंधों में खटास उत्पन्न हो गई है। पिछले साल दोनों पार्टियों ने मणिपुर के चुनाव अलग-अलग लड़े थे। अब एनपीपी ने मेघालय की 60 सीटों में से 58 के लिए अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं। इससे टीएमसी जैसी पार्टी के लिए भाजपा की कीमत पर जगह बन सकती है। यह सही है कि पिछले साल उत्तर-पूर्व के काफी हिस्सों से एएफएसपीए जैसे काले कानून को हटाया गया, जिसका श्रेय भाजपा को जाना चाहिए, लेकिन पूर्ण सामान्य स्थिति व क्षेत्रीयता का अंत, जो आर्थिक विकास के लिए आवश्यक हैं, कुछ बड़े समझौते करने पर निर्भर है जैसे नागा शांति करार। साथ ही इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए कि हिंदी पट्टी में भाजपा की हिन्दुत्ववादी भावनाएं उत्तर-पूर्व में अक्सर उसके विपरीत राजनीतिक लामबंदी का कारण बनती हैं। संक्षेप में बात इतनी है कि भाजपा का लक्ष्य उत्तर-पूर्व के चुनावी राज्यों को स्वीप करके शेष 2023 के लिए राजनीतिक टेम्पलेट तैयार करना है,लेकिन यह काम आसान नहीं है।
त्रिपुरा में भाजपा की राज्य इकाई में दरारें आ गई हैं, जिसकी वजह से बिप्लब देब को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। भाजपा के अपने आदिवासी सहयोगी आईपीएफटी से भी संबंध खराब हो गये हैं। फिर शाही परिवार के वारिस प्रद्योत बिक्रम माणिक्य देब बर्मा के नेतृत्व वाली तिप्रा मोथा के निरंतर बढ़ते प्रभाव ने भी उसके लिए कठिनाई उत्पन्न कर दी है। माकपा ने गठबंधन बनाने की घोषणा की है जिसमें कांग्रेस व तिप्रा मोथा के शामिल होने की प्रबल सम्भावनाएं हैं। बर्मा ने आईपीएफटी को भी अपने साथ मिलाने की पहल की है। बहरहाल, 2021 बंगाल चुनाव में जीत दर्ज करने के बाद टीएमसी भी त्रिपुरा पर अपनी नजरें गड़ाये हुए है और वह सभी 60 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारकर विपक्षी एकता को छिन्न-भिन्न कर सकती है।
मेघालय में एनपीपी-भाजपा गठबंधन में भी दरारें आ गई हैं। मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने पिछले साल ही कह दिया था कि उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी, इसलिए उन्होंने 60 में से 58 सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं। संगमा इस आदिवासी राज्य में समान नागरिक संहिता के भी विरोध में हैं। फिर पड़ोसी भाजपा-शासित असम से अंतर-राज्य सीमा विवाद भी गहरा होता जा रहा है। पिछले साल नवम्बर में असम पुलिस की फायरिंग में छह लोग मारे गये थे, जिससे दोनों गठबंधन साथियों में संबंध अधिक ठंडे हो गये हैं। भाजपा के उत्तरपूर्व के योजनाकार व असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने दो टूक शब्दों में कहा है कि उनकी पार्टी मेघालय में सरकार बनाना चाहती है। दूसरी ओर ममता बनर्जी भी कोनराड संगमा के गढ़ में सेंध लगाने की इच्छुक हैं। गौरतलब है कि 2018 के चुनाव में कांग्रेस की 21 सीटें आयी थीं, लेकिन पिछले साल पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा उसके आधे से अधिक विधायक टीएमसी में ले गये थे। साल 2018 में कांग्रेस ने नागालैंड व त्रिपुरा में एक भी सीट नहीं जीती थी।  
इन तीनों राज्यों के कुल 62.8 लाख मतदाताओं में महिला वोटर्स बहुसंख्या में हैं और हार-जीत के ताले की चाबी भी उन्हीं के पास है। तीनों राज्यों में 18-19 वर्ष के 1.76 लाख नये मतदाता हैं और 97,100 मतदाता ऐसे हैं जिनकी आयु 80 वर्ष से अधिक है, जिनमें से 2,644 तो आयु का शतक लगा चुके हैं यानी 100 साल से अधिक के हैं। त्रिपुरा में हिंसा की आशंका को देखते हुए पहले व अलग मतदान कराने का निर्णय लिया गया है, जिसके लिए बड़ी संख्या में केन्द्रीय अर्द्ध सैनिक बलों की जरूरत पड़ेगी।
उत्तरपूर्व के सात में से चार राज्यों में भाजपा के नेतृत्व में सरकारें हैं। वह इनमें कम से कम एक का इजाफा करना चाहती है। उसकी नजर विशेष रूप से मेघालय पर है। दरअसल, उत्तरपूर्व पर भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव को मद्देनजर रखते हुए अधिक फोकस कर रही है ताकि दिल्ली में उसकी सत्ता बनी रहे। उत्तरपूर्व के सात राज्यों में लोकसभा की कुल 24 सीटें हैं जिनमें से 17 फिलहाल एनडीए के पास हैं। मिजोरम उत्तरपूर्व का एकमात्र राज्य है जहां की सरकार में भाजपा का स्टेक नहीं है, लेकिन वहां की सत्तारूढ़ एमएनएफ  केंद्र में एनडीए का हिस्सा है। मिजोरम में अगले वर्ष चुनाव होंगे। बहरहाल, उत्तरपूर्व जिन तीन राज्यों में अब चुनाव हो रहे हैं उनमें भाजपा के लिए जटिल चुनौतियां हैं।    -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर