नारेबाज़ी से नहीं, चरित्र- निर्माण से रुकेंगे दुष्कर्म

भारत देश जहां यह कहा गया है कि जहां नारी की पूजा हो, वहां देवता निवास करते हैं। जहां की मान्यता यह है कि नारी मां है और सबसे ऊंचा स्थान मां का है। जिस देश में संयम, व्रत की संस्कृति को पाला-पोसा गया, जिस देश में गुरुकुलों में पच्चीस वर्ष तक विद्यार्थियों को रखकर केवल किताबी शिक्षा नहीं, अपितु जीवन विज्ञान पढ़ाया जाता था, उस देश की, हमारे स्वतंत्र भारत की, स्वतंत्रता के 74 वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते हालत यह हो गई कि देश की बेटियां असुरक्षित हैं। वासना के अंधे कभी भी किसी को भी अपनी वासना का शिकार बना लेते हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि हमारे देश की राजनीति इतनी नीचे गिर गई है कि विपक्षी दल गिद्धों की तरह यह देखते रहते हैं कि कहां कोई ऐसा वाकया हो जहां उनकी बंद पड़ी राजनीति की दुकान एक बार चल पड़े अथवा जो एक प्रांत या नगर तक ही सीमित नेता हैं, वे पूरे देश को दिखाई देने पड़ जाएं। भारत में अफसोसजनक स्तर तक महिलाओं के विरुद्ध अपराध हो रहे हैं। 
अब हाथरस में एक पंद्रह वर्षीय बेटी दरिंदों की शिकार हुई। वह तो अब जिंदा नहीं जो बता सके कि उसके साथ क्या हुआ, पर यह सच है कि वह सब हुआ जो एक इन्सान के साथ नहीं होना चाहिए। उसके बाद और उससे पहले भी ऐसी अनेक घटनाएं हुईं। उत्तर प्रदेश के ही हापुड़ में, गोरखपुर में, आजमगढ़ में तथा अन्य कुछ स्थानों पर हाथरस की घटना के आगे पीछे ही ये दुखद समाचार सुनने को मिले। पंजाब के लुधियाना में आठ वर्षीय बच्ची और हिमाचल के ऊना में तीन वर्षीय बच्ची को यही पीड़ा सहनी पड़ी, जिसके विषय में वह कुछ जानती भी नहीं, लेकिन ऊना की घटना ज्यादा चिंताजनक है। यहां जिस बच्चे ने यह अपराध किया, वह भी केवल 11 वर्ष का है। क्या समाज यह नहीं सोचेगा कि वासना का यह कीड़ा कोरोना के वायरस से भी ज्यादा खतरनाक क्यों है, जो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में पहुंच रहा है। क्या यह सच नहीं कि पंजाब में ही कुछ वर्ष पहले दो ऐसी घटनाएं हुई थीं जहां एक 95 वर्षीया वृद्धा भी इसी दुखांत का शिकार हुई। इस घटना के दो पक्ष हैं। पहला तो यह कि राजनीति इतनी नीचे गिर गई कि यहां सुधार की, संवेदना की कोई गुजाइंश नहीं रह गई। दिल्ली में बैठे विरोधी पक्ष के राजनेता यही देखते रहते हैं कि कब कहीं कोई हाथरस जैसी या दिल्ली के निर्भया कांड जैसी घटना हो और वे जलसे-जुलूस निकालें और सत्तापक्ष में बैठी सरकार को नीचा दिखाएं। 
पिछले दिनों राजस्थान में भी एक महिला के साथ ऐसा ही भयानक कांड हुआ। देश का हर जागरूक नागरिक यह तो विश्वास करेगा ही कि मुख्यमंत्री श्री योगी कभी भी ऐसे अपराधियों को क्षमा नहीं करेंगे। मुझे आश्चर्य है कि इन घटनाओं पर सच्चे या मगरमच्छ के आंसू बहाने वाले कभी यह सोचते हैं कि समाज की यह हालत क्यों हो गई? हमारे टीवी चैनलों पर विज्ञापनों के नाम पर अश्लील गीत और नृत्य के नाम पर जो पूरे देश के अबोध हृदयों को परोसा जा रहा है, क्या यह उसका दुष्परिणाम नहीं? शराब की वकालत करने वाले क्या यह नहीं जानते कि पूरे देश में शराब पीने वाले बच्चों की संख्या बढ़ गई है। पंजाब के आंकड़े तो यह हैं कि 10 से 17 वर्ष की आयु के बीच एक बहुत बड़ी संख्या में बच्चे शराब पी रहे हैं और अब एक नई बीमारी हर बच्चे के हाथ में मोबाइल, स्मार्ट मोबाइल समय ने, सरकारों ने और शिक्षा पद्धति ने पहुंचा दिया है। सामूहिक जीवन समाप्त हो रहा है। हर बड़ा-छोटा हाथ में मोबाइल लेकर प्रयास करता है कि एकांत में बैठे। इन मोबाइलों पर इंटरनेट के द्वारा कितनी अश्लीलता, असामाजिकता परोसी जा रही है, उसकी चिंता कोई नहीं करता। निश्चित ही उसी का यह परिणाम है कि एक 11 वर्ष का बच्चा भी इतना अनियंत्रित कामुक हो गया कि वह पड़ोस में रहने वाली तीन वर्षीय बच्ची से ही वह सब करने का प्रयास करता है जिसकी कल्पना भी भयावह है। बहुत दिन पहले भी मैंने सरकारों को लिखा था कि अगर कानून सख्त करके फांसी के फंदे पर दुष्कमियों को पहुंचाकर दुष्कर्म जैसी बुराई खत्म हो जाए तो बहुत अच्छा है। देश के हर प्रांत में एक जेल में फांसी घर बना दो और सभी दुष्कमियों को वहां पहुंचा दो, पर सरकार तो जानती है कि ऐसे अपराधियों की संख्या देश में हज़ारों है। विरोधी पक्ष भी जानते हैं। जो एक दिन सत्तापक्ष में रहता है, वही तो दूसरे दिन विपक्ष में जाता है। सत्ता में न भी बैठे हों, धर्म के आसन पर बैठकर मोक्ष पाने का उपदेश देने वाले समाज सेवा के नाम पर बड़े-बड़े मंच सजाने वाले अथवा बहुत से ऐसे समाज सेवी जिनके कारण ही समाज में गरीब का दुख दर्द बांटा जा रहा है। सभी जानते हैं कि बुराई की जड़ कहां है। क्या कभी किसी ने बच्चों के चरित्र निर्माण के विषय में सोचा? क्या हमारे पाठ्यक्रमों में उन बच्चों की कहानियां पढ़ाई-सुनाई जाती हैं जिन्होंने सात वर्ष की आयु में भी देश के लिए बलिदान दिया। आजादी के लिए फांसी पर चढ़ने वाले 16-18 वर्ष के बच्चों के तो नाम भी आज के बच्चों तक नहीं पहुंचाए जाते। बचपन से ही चरित्र का निर्माण होगा, तभी तो जीवन में अपराध पथ से बचा जा सकता है। 
मां की गोद से दूध के साथ ही जो संस्कार बच्चे लेते हैं, मां की शिक्षा जिन्हें मिलती है, वे मजबूत रहते हैं और किसी भी बुराई का सामना पूरा जीवन कर सकते हैं। कौन नहीं जानता कि हमारे यहां तो माता को प्रथम गुरु, प्रथम देवता, प्रथम आचार्य कहा गया है। एक माता तो वे हैं जो सूर्य चढ़ने से पहले बच्चों को छोड़कर कहीं मजदूरी के लिए जाती हैं, जिससे रात को उनके बच्चों को भूखा न सोना पड़े। दूसरी माताएं उस वर्ग की हैं जिन्हें यह पब्लिक स्कूल संस्कृति वाले यह निर्देश तो प्रतिदिन दे देते हैं कि दोपहर के खाने के डिब्बे में बच्चे क्या लेकर आएं, पर कभी यह नहीं कहा कि आज बच्चे घर से धु्रव की, प्रह्लाद की, हकीकत की, खुदीराम बोस या रानी झांसी की कहानी सुनकर आएं। किसी स्कूल ने आज तक यह नहीं कहा कि मुकाबले होंगे तो केवल बलिदानी, तपस्वी, शहीद बच्चों के जीवन पर। सही बात है, दीपक से ही तो दीपक जलता है। अगर बचपन में इन बच्चों के हृदय में ऐसे दीप जलाए जाएं, जैसे कभी मां शकुंतला ने, मां जीजाबाई ने तथा अन्य महापुरुषों की माताओं ने जलाए थे, तो कोई कारण नहीं कि हमारी नई पीढ़ी इस तरफ  जाए, जहां विनाश, मौत, सामाजिक अस्वच्छता और देश की बेटियों के साथ अन्याय होता है।