किसानों का हित सोचना भी ज़रूरी 

कोरोना संक्रमण के चलते पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था उधड़ चुकी है और सामान्य नागरिक अपनी रोज़ी-रोटी की सुध खो चुके हैं। 17 करोड़ लोगों का बेरोजगार हो जाना और 40 करोड़ लोगों का गरीबी की सीमा रेखा की देहरी पर खड़े हो जाना बताता है कि भारत ऐसे  संकटकाल से गुजर रहा है जिसमें समूचे राजनीतिक तंत्र को एक सिरे से जनता की समस्याओं को सुलझाने का तरीका ढूंढना चाहिए। सत्ता व विपक्ष का भेद भूल कर भारत को पुन: पटरी पर लाने के प्रयास किये जाने चाहिएं परन्तु कोरोना काल में ही कृषि क्षेत्र के लिए जारी किए गए कानूनों का विरोध जिस तरह धरातल पर विभिन्न राज्यों के किसान कर रहे हैं, उससे यह लगता है कि संकट के इस दौर में पक्ष-विपक्ष की यह रणनीति जारी रहेगी। खास कर पंजाब विधानसभा में जिस तरह इनके खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया, उससे स्पष्ट होता है कि पूरे मामले पर राज्यों के अधिकारों और केन्द्र के एकाधिकार का मसला भी आड़े आ सकता है। बेशक कृषि भारतीय संविधान में राज्य सूची में आती है और राज्य सरकारों को अधिकार है कि वे अपने क्षेत्र में खेती व किसानों की दशा सुधारने के लिए आवश्यक कदम उठाएं और ऐसे कारगर उपाय करें जिससे किसान की आर्थिक हालत सुधरे और उसकी उपज का बेहतर मूल्य उसे प्राप्त हो।
 इस बाबत केन्द्र सरकार भी विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से ऐसे कदम उठाती है जिससे किसान की उपज का उचित मूल्य मिले और इस सम्बन्ध में कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी घोषित करती है परन्तु नए कानून में जिस तरह कृषि मंडी समितियों को समाप्त करके पूंजीपतियों के भरोसे कृषि बाज़ार को छोड़ने के प्रावधान किए गए हैं, और ठेके पर खेती कराने की प्रथा को चालू करने की व्यवस्था की जा रही है, उसका प्रबल विरोध किसान समुदाय कर रहा है और पंजाब राज्य में सड़कों तक पर उतर आया है। किसान का सड़कों पर उतरना भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसी भी सूरत में शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता क्योंकि पूरी दुनिया में सिर्फ भारत ही ऐसा देश है जिसमें किसान को धरती के भगवान की संज्ञा से अलंकृत किया गया है। इसकी मुख्य वजह यह है कि किसान का श्रम जब  प्रकृति से मिल कर एकाकार हो जाता है तो धरती पर नव संरचना का श्रृंगार बिखर जाता है और यह मानव  के लिए जीवनदायी उपहार होता है। इस गूढ़ तत्व को हमारी संस्कृति में इस तरह महत्ता दी गई है कि किसान को धरती का भगवान कहा गया है।
 भारत की ज़मीनी हकीकत को देखते हुए ही 2006 में कृषि उत्पादन प्रबन्धन समिति (एपीएमसी) एक्ट लाया गया था। इसके तहत किसान की उपज को उसके नज़दीक ही घोषित समर्थन मूल्यों पर बेचने की व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि यदि वह चाहे तो किसी दूर की मंडी में भी बेच सकता है और एक राज्य से दूसरे राज्य में उपज को ले जाने पर भी कोई प्रतिबन्ध न रहे। नये कानूनों के तहत मंडी समितियों के स्थान पर सीधे बड़े व्यापारी किसान से उपज खरीद कर उसे किसी भी स्थान पर भेज सकते हैं। इससे कृषि के बाजार में सीधा पूंजीपतियों का आधिपत्य होने का बड़ा खतरा पैदा हो सकता है और किसान की उपज का मूल्य बाज़ार की शक्तियों के अनुरूप इस प्रकार तय होने लगेगा कि मांग व सप्लाई के समीकरण उस पर लागू होंगे। जाहिरा तौर पर बाज़ार में किसान की फसल आने पर सप्लाई इस कदर होगी कि व्यापारी मनमाने ढंग से कीमत तय करेंगे। इसके साथ ही ठेके की खेती की प्रथा यदि शुरू होती है तो किसान अपनी ही जमीन का मालिक होने के बावजूद अपने खेतों पर ही मजदूर बन जाएगा और अनुबन्ध अवधि में उसकी फसल खराब होने का मुआवज़ा ठेका देने वाली कम्पनी को मिलेगा। (युवराज)