‘गण’ ही बनता आया है गणतंत्र का गौरव

आज हम स्वतंत्र भारत के गणतंत्र के 71 वर्ष पूरे कर रहे हैं लेकिन गणतंत्र से हमारा संबंध केवल 71 वर्षों का नहीं है। वास्तव में भारत ने ही दुनिया को गणतंत्र की अवधारणा दी है। हजारों वर्ष पहले भी भारतवर्ष में अनेक गणराज्य थे, जहाँ शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहां यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है। वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में हमारे  यहां अधिकांश स्थानों पर गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। महाभारत में भी गणराज्य व्यवस्था की विशद विवेचना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है।  इतिहास ही नहीं, आज भी हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, सशक्त गणतंत्र हैं जहां ‘गण’ ही ‘तंत्र’ का मुखिया है। आज एक साधारण व्यक्ति का पुत्र भी सत्ता के सर्वोच्च पद तक पहुंच सकता है। वर्तमान राष्ट्रपति हो या प्रधानमंत्री, दोनाें का इस पद तक पहुंचना हमारे गणतंत्र की ऐसी खूबी है जिसपर हम गर्व कर सकते हैं लेकिन हमारी यह उपलब्धि अनेक शक्तियों को चुभती है। भारत को सपेरों, मदारियों का देश बताने वाले मुंह की खा चुके हैं लेकिन उन्हीं के विचारपुत्र आज भी भारत को कमजोर करने का कोई मौका नहीं गंवाते।गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। लेकिन दुर्भाग्य कि वोटबैंक की राजनीति  इसे अल्पसंख्यकों के शासन में बदलने का प्रयास कर रही है। यह विशेष स्मरणीय है कि गणतंत्र के ‘गण’ और ‘तंत्र’ महज शब्द नहीं जो अनायास आपस में जुड़ गए हों। वह संस्कृति ही है जो इन्हें जोड़ती है।  यह भी सत्य है कि जब-जब विभाजक तत्वों ने अपनी चालें चलकर कुछ लोगों को व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए उकसाया,  भारी क्षति हुई है। इतिहास की उन क्षणिक भूलों की कीमत चुकाने में  सदियां लगती हैं। भारत सांस्कृतिक गणतंत्र हैं तो केवल ‘तंत्र’ की ‘गन’ से नहीं बल्कि ‘गण’ के ‘मन’ से है। इसीलिए इस धरा के पुत्र (गण) अपने द्वारा चुने हुए तंत्र से यह अपेक्षा जरूर करते हैं कि वे देश को बांटने वाली शक्तियों का पूरी शक्ति से  प्रतिकार करें। यदि ‘तंत्र’ ऐसा नहीं करता तो वह निश्चित रूप से दोषी है।  भारत उत्सवधर्मी देश है, इसलिए यह कैसे संभव है कि हम अपने गणतंत्र दिवस को धूमधाम से न मनाएं। राजपथ पर शानदार परेड, झांकियां, फ्लाइंग -पास्ट इस धरा के ‘गण’ के मन और ‘तंत्र’ की गन के जीवन्त प्रमाण ही तो हैं  लेकिन  कुछ तथाकथित ‘बुद्धिजीवी’ इसे फालतू की कवायद करार देते हैं। अपनी जड़ों से कटे ये लोग यह समझने को तैयार नहीं कि किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र का अपना सौंदर्यबोध और शक्तिबोध होता है। देश के विकास की तस्वीर, सांस्कृतिक कार्यक्र म और राज्यों की झांकियाँ हमारा सौंदर्यबोध है जबकि सेना, अनुशासन, आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्र और वायुसेना की शानदार फ्लाइंग पास्ट हमारे शक्तिबोध का प्रतीक है। इससे राष्ट्र में आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान की भावना का संचार होता है।  अस्त्र-शस्त्र के प्रदर्शन का उद्देश्य किसी को भयभीत करना नहीं -क्योंकि हमारा दर्शन सदा से ही ‘न भय किसी को देते हैं और न भय किसी का मानते हैं’ वाला रहा है। यह शक्तिबोध राष्ट्र के ‘गण’ को ‘तंत्र’ की ओर से आश्वस्त करना भर है। यदि इस खर्च को धन की बर्बादी कहा जाए तो कल को देश की सीमाओं की रक्षा पर होने वाले खर्च का भी प्रश्न उठ सकता है। तब तो कुछ भी कर पाना संभव नहीं होगा। हर खर्च का मूल्यांकन मूल्य के साथ-साथ महत्व से भी किया जाता है। देश की सभी समस्याओं, सभी चुनौतियों की चिंता ‘गण’  की है। गण को ही तंत्र की लगाम कसनी होगी। दागी को दागे बिना सच्चे गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। मुफ्ती हो या मुफ्त, टिकट खरीदने वाले को ही नहीं, बेचने वाले को भी तंत्र कोई सजा नहीं दे सकता क्योंकि रहबर और राहजन भाई-भाई हैं। निर्भया के दोषियों को सजा देरी से मिलने की टीस यदि  सालती है तो घर बैठे रहने की अपराधिक भूल सुधारनी होगी। गण और तंत्र के बीच दीवार बने ऐसे सभी विषधरों का सफाया करने के लिए प्रत्येक भारतपुत्र को अपने लोकतांत्रिक अधिकार को अपना नैतिक कर्तव्य समझना होगा।आओ हर चुनौती, हर बाधा के बावजूद बावजूद देश के गौरव के नये अध्याय लिखने वाले उन तमाम जवानों, किसानों, धरती पुत्रों को शत-शत प्रणाम करें जिन्होंने अपनी जननी और जन्मभूमि की शान बढ़ाई। यह उन्हीं का पुण्य प्रताप है कि ‘हम है सबसे बड़ा गणतंत्र! सच्चा गणतंत्र!! जयहिंद!’(युवराज)