सफलता की राहों के नये पथिक

‘तुम हमें स्वीकार करो, चाहे हम तुम्हें नहीं करते’। छक्कन ने बताया है, आजकल तेरी दुनिया का यही चलन है। खोटे सिक्के तो कहीं चलते नहीं, ऐसा हमेशा सुनते आये थे, लेकिन आजकल जो खोटा है, वही चलता है। भाई जान, यहां खरा हो जाना एक गुनाह हो गया। खरे का अर्थ है सीधा, सपाट होना। होगा पिछले युग का यह गुण। आजकल तो इस सूत्र ने बात निपटा दी है, कि ‘जनाब, यहां तो सीधी उंगली से घी भी नहीं निकलता। उंगली टेढ़ी नहीं, अगर जन्मजात टेढ़ी हो तभी बात बने।’
किसी दिन बहुत पहले हमारे घर में शरीफ बच्चा पैदा हो जाना एक सुसंवाद होता था। आज शरीफ और नैतिक गुणों से  भरपूर सन्तान को देख कर जिन्होंने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किये, वे सोचते हैं कि आज की टेढ़ी ज़िन्दगी में यह सीधा सज्जन अपने दिन काटेगा कैसे?
बेशक आज इस मुखौटाधारी समाज में व्यक्ति का चेहरा तो नैतिकता का अलम्बदार और आदर्शों का पहरुआ होना चाहिए।  पहरुआ ही नहीं, अपनी नैतिकता, अपने बड़प्पन, अपने सच्चा होने का प्रसारक भी हो, लेकिन अपने झूठ पर जितनी खूबसूरती से अपने सच की कलई वह कर सकता हो, उतनी ही उसकी बहादुरी है।
जी हां, हम जानते हैं, आजकल रसोई घरों में ऐसे बर्तन इस्तेमाल नहीं किये जाते कि जिन पर बार-बार कलई करने की ज़रूरत पड़े। लेकिन ज़िन्दगी में कामयाबी की दौड़ में ऐसे व्यक्ति अवश्य इस्तेमाल हो जाते हैं, कि जो मौसम बदलने के साथ अपनी कलई का रंग भी बदल लें। इसे कोई बुराई नहीं मानता, बल्कि समय के साथ बदल जाना कहते हैं। हम आपको ऐसे बहुत से नेताओं के साथ मिलवा सकते हैं, जिन्होंने हर मौसम नया परिधान बदलने की तरह अपने दल बदले हैं, लेकिन इसके बावजूद अपना हर चुनाव जीता है। अपनी राजनीति में साबुत कदम आगे बढ़े हैं। आज अपना वक्त गुज़र जाने के  बाद परिवारवाद को नकारते हुए, अपने बेटे-पोतों को एक सार्थक अपवाद बताते हुए उनके लिए कुर्सी सुरक्षित करने के बाद, नयी उम्र की नयी फसल का नारा लगा रहे हैं।
जनाब, वह कामयाब आदमी ही क्या जिसकी कथनी और करनी में अन्तर न हो। धर्म की अलम्बरदारी करने वालों के गरेबां को आध्यामिकता तो क्या, नियमित पूजा अर्चना भी कभी स्पर्श नहीं करती, परन्तु अपनी कट्टर धार्मिकता का दिखावा करते हुए वह जनगणना में जातीयगणना की मांग कर सकते हैं। दलितों, वंचितों के आरक्षण संरक्षण के लिए उनकी आवाज़ सबसे ऊंची होती है, लेकिन कहीं उनकी जात को आरक्षण से बाहर करके देखें। दूसरा मणिपुर ना छेड़ दें, तो बात ही क्या?
सफल आदमियों के गुणों की तलाश करने निकलते हैं, तो वही महानुभाव सुरक्षित है, जो परिवर्तन के नाम पर दावे करते हुए अपना काया-कल्प कर सकें।
यह काया-कल्प करने की भी खूब कही। जब शहरों का कायाकल्प करना हो तो उन्हें हमारे शहर कहा जाता है। स्मार्ट शहर वह जिसके लिए दरबार से भारी भरकम ग्राण्ट मंजूरी हो जाये, लेकिन सड़कों का कलेवर बदलने के नाम पर ऐसी टूट-फूट और गड्डों की सौगात मिलती है, कि बार-बार उनके नव-जीवन की तिथि की घोषणा करते-करते कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है। नयी तारीख बदलने से कैलेंडर भी शार्मिन्दा हो जाते हैं। शहर में नयी उजास भरने के नाम एल.ई.डी. रौशनी की क्रांति ऐसे गहरे अंधेरे में मुंह छिपा लेती है, कि उस उजास के लिए मिली ग्राण्टें भी ठेकेदारों की जेब में बैठी-बैठी अपने वजूद पर शर्मिन्दा हो जाती हैं।
जी हां, क्रांति धर्मी, चाहे वह समाज और राजनीति का युग पुरुष हो या कला और लेखन जगत का कोई मसीहा, उसे अपने जीवन कर्म या रचना कर्म में बदलाव लाने की घोषणा करने में कोई परेशानी नहीं होती। लेकिन यह बदलाव लाया कैसे जायेगा? किसके लिए लाया जायेगा? इसकी उसे तनिक भी ़खबर नहीं है। मज़े की बात यह कि वह ़खबर न रखने पर गर्वित होता है और आराम से कह देता है, नहीं भाई जान, हम कोई अ़खबार नहीं पढ़ते, किसी ग्रन्थ से प्रेरणा नहीं लेते क्योंकि ऐसा करेंगे तो हमारी मौलिकता नष्ट हो जायेगी।
ऐसी जानकारी मिली है कि हम इन निरक्षर भट्टाचार्यों को कठिन से कठिन विषय पर हुए सैमीनार, गोष्ठी अथवा सम्मेलन में घंटों बोलते सुन सकते हैं।
मुफ्त की तकरार और तिल को ताड़ बना देने के फन के ये युग-पुरुष माहिर होते हैं। अपनी छींक से लेकर अपच तक की हर ़खबर को मीडिया में प्रसारित करवा सकना उनकी विशेषता होती है, और अब सोशल मीडिया प्रचलित हुआ तो उसके नायक भी तो, यही सज्जन हैं। रोज, यहां ‘लाइक्स’ बटोरने का अभियान चलता है और इन्हीं के बल पर चुनावों में वह अपने लिए टिकट देने की गुज़ारिश आगे ठेल देते हैं।
यह युग बनावटी आत्म-परिचय की मानद डिग्रियां प्राप्त करने की दौड़ का युग है। आपने चाहे किसी नियमित विश्व विद्यालय से स्नातक की डिग्री तक भी हासिल न की हो, लेकिन किसी भारी-भरकम हिन्दी की मानद डिग्री को वह डॉक्टरेट अथवा डी.लिट बताते तनिक भी संकोच नहीं करते। वोट मांगने का मौसम आता है, या कला अथवा रचना जगत में अभिनंदन करवाने का रुआब हो तो यही मानद डिग्रियां ही उनके काम आयेंगी। तब देश में अनपढ़ता और अशिक्षा को दूर करने के लिए वह नया शिक्षा मॉडल भी प्रस्तुत कर सकते हैं, और डिजीटल देश में डिजीटल ज्ञान का उचित प्रसार न हो सकने की शिकायत करते वह थकते नज़र नहीं आते। 

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