पर्यावरण की चिंता बने प्रत्येक व्यक्ति की चिंता

पर्यावरण प्रदूषण वर्तमान समय में सबसे बड़ी वैश्विक समस्या है। प्रदूषित वातावरण के बढ़ते खतरे हम अब दिल्ली सहित देश के तमाम दूसरे हिस्सों में भी निरन्तर अनुभव कर रहे हैं। वाहनों के प्रदूषण, पराली दहन तथा कई अन्य विभिन्न कारणों से वातावरण में बढ़ते प्रदूषण के कारण स्वच्छ हवा में सांस लेना एक सपना सा लगने लगा है। मानवीय क्रियाकलापों के कारण प्रकृति में लगातार बढ़ते दखल के कारण पृथ्वी पर बहुत से प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। आधुनिक जीवनशैली, पृथ्वी पर पेड़-पौधों की कमी, पर्यावरण प्रदूषण का विकराल रूप, मानव द्वारा प्रकृति का बेदर्दी से दोहन इत्यादि कारणों से मानव और प्रकृति के बीच असंतुलन की भयावह खाई उत्पन्न हो रही है। करीब तीन दशकों से महसूस किया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण से ही जुड़ी है। पर्यावरण संतुलन बनाए रखने तथा लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने को लेकर सकारात्मक कदम उठाने के लिए प्रतिवर्ष 26 नवम्बर को दुनियाभर में ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (यू.एन.ई.पी.) द्वारा ‘विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस’ का आयोजन किया जाता है। वास्तव में यह महत्वपूर्ण दिवस हमें एकजुट होकर पर्यावरण के प्रति सचेत होने और लोगों को जागरूक करने के साथ वर्षभर ऐसे कार्यक्रम आयोजित के लिए प्रेरित करता है, जिससे हम सब पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का समुचित निर्वहन करते हुए पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ज़रूरी कदम उठा सकें।
प्राथमिक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय एजेंसी ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ का मूल उद्देश्य पर्यावरणीय परिस्थितियों के संदर्भ में समीक्षा करते हुए पर्यावरणीय सहयोग को बढ़ावा देना है। यह संस्था अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण के महत्व और उससे जुड़ी जानकारी के विनिमय में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। यू.एन.ई.पी. द्वारा वर्ष 1992 में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन पर पूरी दुनिया को पर्यावरण के प्रति जागरूक करने के लिए विश्व के कई देशों ने एकजुट होकर भविष्य में पर्यावरण से उत्पन्न खतरों के बारे में विचार विमर्श किया था। उसके बाद वैश्विक तथा क्षेत्रीय स्तर पर पर्यावरण में अपेक्षित सुधार के लिए कई तरह के सम्मेलन किए जाते रहे हैं। रियो डी जेनेरियो में आयोजित ऐसे ही प्रमुख सम्मेलन में यू.एन.ई.पी. द्वारा पांच प्रतिशत तक वैश्विक तापमान को कम करना तथा ओजोन परत को क्षति पहुंचाने वाले कारकों को समाप्त करना लक्ष्य निर्धारित किया गया। पर्यावरण की रक्षा और प्रकृति के उचित दोहन को लेकर हालांकि यूरोप, अमरीका तथा अफ्रीकी देशों में 1910 के दशक से ही समझौतों की शुरूआत हो गई थी किन्तु बीते कुछ दशकों में दुनिया के कई देशों ने इसे लेकर क्योटो प्रोटोकाल, मांट्रियल प्रोटोकाल, रियो सम्मलेन जैसे कई बहुराष्ट्रीय समझौते किए हैं। अधिकांश देशों की सरकारें पर्यावरण को लेकर चिंतित तो दिखती हैं लेकिन पर्यावरण की चिंता के बीच कुछ देश अपने हितों को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण की नीतियों में बदलाव करते रहे हैं।
प्रदूषित वातावरण का खामियाजा केवल मनुष्यों को ही नहीं बल्कि धरती पर विद्यमान प्रत्येक प्राणी को भुगतना पड़ता है। बड़े पैमाने पर प्रकृति से खिलवाड़ के ही कारण दुनिया के विशालकाय जंगल अब हर साल सुलगते रहते हैं, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को खरबों रुपये का नुकसान होने के अलावा दुर्लभ जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां भी भीषण आग में जलकर राख हो जाती हैं। कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान दुनियाभर में पर्यावरण की स्थिति में सुधार देखा गया था, जिसने बता दिया था कि हम चाहें तो पर्यावरण की स्थिति में काफी हद तक सुधार किया जा सकता है लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अपेक्षित कदम नहीं उठाए जाते। न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में निरन्तर हो रही बढोतरी और मौसम का लगातार बिगड़ता मिजाज गहन चिंता का विषय बना है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पिछले दशकों में दुनियाभर में दोहा, कोपेनहेगन, कानकुन इत्यादि बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन होते रहे हैं। वर्ष 2015 में पेरिस सम्मेलन में तो 197 देशों ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए अपने-अपने देश में कार्बन उत्सर्जन कम करने और 2030 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री तक सीमित करने का संकल्प लिया था किन्तु उसके बावजूद इस दिशा में ठोस कदम उठते नहीं देखे गए हैं।
वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को लेकर चर्चाएं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोज़गार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते इस तरह की चर्चाएं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं। धरती में रह-रहकर उथल-पुथल की जो प्राकृतिक घटनाएं घट रही हैं, उनके पीछे छिपे संकेतों और प्रकृति की मूक भाषा को समझना बेहद ज़रूरी है।
 आधुनिकरण और औद्योगिकीकरण की दौड़ में हमने हर पल प्रकृति की नैतिक सीमाओं का उल्लंघन किया है और ये सब प्रकृति के साथ इंसान की ज्यादतियों का ही नतीजा हैं, जिसके भयावह परिणाम हमारे सामने हैं। मानवीय क्रियाकलापों के कारण ही वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन और पार्टिक्यूलेट मैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है कि हमें सांस के जरिये असाध्य बीमारियों की सौगात मिल रही है। सीवरेज की गंदगी स्वच्छ जल स्रोतों में छोड़ने की बात हो या औद्योगिक इकाईयों का अम्लीय कचरा नदियों में बहाने की अथवा सड़कों पर रेंगती वाहनों की लंबी-लंबी कतारों से वायुमंडल में घुलते जहर की या फिर सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद खेतों में जलती पराली से हवा में घुलते हजारों-लाखों टन धुएं की, हमारी आंखें तब तक नहीं खुलती, जब तक प्रकृति का बड़ा कहर हम पर नहीं टूट पड़ता। पैट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाले धुएं ने वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है।
 

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