भारत के लिए पाकिस्तान से ज्यादा खतरनाक है चीन

इन दिनों लद्दाख और सिक्किम से सटी भारत-चीन सीमा पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। इन इलाकों में चीन ने न सिर्फ  अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी है, बल्कि उसकी वायु सेना के हेलीकॉप्टर भी लगातार आसमान में मंडरा रहे हैं। उधर नेपाल ने भी तिब्बत, चीन और नेपाल से सटी सीमा पर भारत के लिपुलेख, कालापानी और लिपियाधूरा इलाके को अपने नए राजनीतिक नक्शे में शामिल कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। माना जा रहा है कि नेपाल ने भी यह दुस्साहस चीन की शह पर ही किया है।नेपाल की यह कार्रवाई और चीनी सैनिकों की ओर से उकसाने वाली गतिविधियों में अचानक आई तेजी बता रही है। उसे लग रहा है कि भारत इन दिनों कोरोना महामारी से निबटने में लगा है, इसलिए ऐसे में फिर से मोर्चा खोलकर उसे सीमाओं पर उलझाया जा सकता है और इसकी आड़ में अपने हितों के लिए दबाव बनाया जा सकता है। मई 1998 में वाजपेयी सरकार ने पोखरण-2 परमाणु परीक्षण किया था, जिसकी वजह से अमरीका ने भारत को काली सूची में डाल दिया था। उस विस्फोट के बाद ही तत्कालीन एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस ने अपने एक चौंकाने वाले बयान में सामरिक दृष्टि से चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था। जार्ज का यह बयान निश्चित ही किन्हीं ठोस सूचनाओं पर आधारित रहा होगा, जो रक्षा मंत्री होने के नाते उन्हें हासिल हुई होगी। लेकिन यह बयान कई लोगों को रास नहीं आया था। उनके ही कई साथी मंत्रियों ने उनके इस बयान पर नाक-भौं सिकोड़ी थीं। आज की तरह उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी और उसे ही नहीं, बल्कि एनडीए की नेतृत्वकारी भारतीय जनता पार्टी और उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी जार्ज का यह बयान नागवार गुजरा था। वामपंथी दलों को तो स्वाभाविक रूप से जार्ज की यह साफगोई नहीं सुहा सकती थी, सो नहीं सुहाई थी।संघ परिवार जहां अपनी चिर-परिचित मुस्लिम विरोधी ग्रंथी के चलते पाकिस्तान के अलावा किसी और देश को भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं मान सकता था, वहीं वामपंथी दल चीन के साथ अपने वैचारिक बिरादराना रिश्तों के चलते जार्ज के बयान को खारिज कर रहे थे। कई तथाकथित रक्षा विशेषज्ञों और विश्लेषकों समेत मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी इसके लिए जार्ज की काफी लानत-मलानत की थी।वैसे न तो चीनी खतरा भारत के लिए नया है और न ही उससे आगाह करने वाले जार्ज अकेले राजनेता रहे। 2017 में चीन की सेना जब डोकलाम में कई किलोमीटर अंदर तक घुस आई थी, तब संयुक्त मोर्चा सरकार में रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने भी अपने अनुभव के आधार पर चीनी खतरे के प्रति सरकार को आगाह किया था। दरअसल, चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब से ही वह भारत के लिए खतरा बना हुआ है। देश को सबसे पहले इस खतरे की चेतावनी डॉ. राममनोहर लोहिया ने दी थी। तिब्बत पर चीनी हमले को उन्होंने ‘शिशु हत्या’ करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि वह तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता न दें, लेकिन नेहरू ने लोहिया की सलाह मानने की बजाय चीनी नेता चाऊ एन लाई से अपनी दोस्ती को तरजीह देते हुए तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मानने में जरा भी देर नहीं की। यह वह समय था जब भारत को आजाद हुए महज 11 वर्ष हुए थे और माओ की सरपरस्ती में चीन की लाल क्त्रांति भी नौ साल पुरानी ही थी। हमारे पहले प्रधानमंत्री नेहरू तब समाजवादी भारत का सपना देख रहे थे, जिसमें चीन से युद्घ की कोई जगह नहीं थी। उधर, माओ को पूरी दुनिया के सामने जाहिर करना था कि साम्यवादी कट्टरता के मामले में वह लेनिन और स्टालिन से भी आगे हैं। तिब्बत पर कब्जा उनके इसी मंसूबे का नतीजा था।इतना सब होने के बावजूद लगभग एक दशक तक भारत-चीन के बीच राजनयिक रिश्ते अच्छे रहे। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने एक-दूसरे के यहां की कई यात्राएं कीं। लेकिन 1960 का दशक शुरू होते-होते चीनी नेतृत्व के विस्तारवादी इरादों ने अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी और भारत के साथ उसके रिश्ते शीतकाल में प्रवेश कर गए। तिब्बत जब तक आजाद देश था, तब तक चीन और भारत के बीच कोई सीमा विवाद नहीं था, क्योंकि तब भारतीय सीमाएं सिर्फ  तिब्बत से मिलती थीं। लेकिन चीन द्बारा तिब्बत को हथिया लिए जाने के बाद वहां तैनात चीनी सेना भारतीय सीमा का अतिक्त्रमण करने लगी। उन्हीं दिनों चीन द्बारा जारी किए गए नक्शों से भारत को पहली बार झटका लगा। उन नक्शों में भारत के सीमावर्ती इलाकों के साथ ही भूटान के भी कुछ हिस्से को चीन का भू-भाग बताया गया था। चूंकि इसी दौरान भारत यात्रा पर आए तत्कालीन चीनी नेता चाऊ एन-लाई नई दिल्ली में पंडित नेहरू के साथ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए भारतीय नेतृत्व को भरोसा था कि सीमा विवाद बातचीत के जरिए निपट जाएगा। मगर, 1962 में चीन की सेना ने पूरी तैयारी के साथ भारत पर हमला बोल दिया और भारत को पराजय का कड़वा घूंट पीना पड़ा। चीन ने अपने विस्तारवादी नापाक मंसूबों के तहत हमारी हजारों वर्ग मील जमीन हथिया ली। इस तरह तिब्बत पर चीनी कब्जे के वक्त लोहिया द्वारा जताई गई आशंका सही साबित हुई। (संवाद)