देश की सियासत की तस्वीर, मालामाल बनाम फटेहाल!

वाह री सियासत तेरी महिमा न्यारी। आज देश की स्थिति किसी से भी छिपी हुई नहीं है। कोरोना के कारण सुरक्षा हेतु लगाए गए लाकडाउन ने पूरी तस्वीर उजागर कर दी। देश की आर्थिक स्थिति क्या है, देश का प्रत्येक नागरिक कितना सशक्त है एवं मजबूत है, यह स्पष्ट हो गया। दो जून की रोटी के लिए भटकता हुआ देश आज भुखमरी के कगार पर जा खड़ा हुआ है। लाकडाउन ने देश की मुखौटा रूपी चमक-दमक को उतार कर रख देने का कार्य किया तथा वास्तविक चेहरा प्रस्तुत करने का कार्य किया। प्रस्तुत किए गए आंकड़ों एवं वास्तविकता में बहुत बड़ा अंतर है। देश का 80 प्रतिशत गरीब दो जून की रोटी के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है। 
लाकडाउन लगते ही काम-धाम बंद हो गया। उसका परिणाम यह हुआ कि देश की गरीब जनता अपने-अपने कमरों से परिवार के साथ सड़कों पर आ खड़ी हुई। इसके पीछे मूल कारण यह था कि किसी के भी पास अपने परिवार को दो जून की रोटी का प्रबन्ध करने की क्षमता नहीं थी। यदि शब्दों को और सरल करके कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा कि देश की 80 प्रतिशत जनता के पास एक दो माह के भोजन का प्रबंध भी नहीं है। यदि काम-धाम ठप्प हो जाता है तो इतनी बड़ी आबादी बिना किसी बीमारी के मात्र भूख के कारण ही मर जाएगी क्योंकि एक माह भी बैठकर दो जून की रोटी अपने परिवार को नहीं खिला सकते। देश की यह आर्थिक तस्वीर है, देश का यह वास्तविक विकास है। यह देश की प्रगति है।
लेकिन वहीं देश का दूसरा रूप भी सबके सामने है। यह एक ऐसा रूप है जहां धन की कोई सीमा ही नहीं है। बड़े से बड़ा महल, बड़ी से बड़ी गाड़ी, बेइन्तहा सम्पत्ति, अनुमान से अधिक बेशकीमती आभूषण। ऐसा है देश का वास्तविक दृश्य। अब सोचिए और समझिए कि वास्तव में इतनी बड़ी खाई का कारण क्या है। इतनी बड़ी खाई के पीछे का रहस्य क्या है कि धन और सत्ता के साथ-साथ संसाधनों का समान  एवं संतुलित विभाजन नहीं हुआ।
यदि राजनीति है तो सब कुछ ठीक है। कोई भी कुछ पूछने वाला नहीं है। किसी भी प्रकार का सवाल आपसे  नहीं हो सकता। इतनी संपत्ति आई कैसे...? अकूत सम्पत्ति अर्जित करने का फार्मूला क्या है...? एक ओर फटेहाल देश की तस्वीर है तो दूसरी ओर मालामाल देश की चकाचौंध। यह अजब असमंजस की स्थिति है। सवाल तो बहुतेरे हैं लेकिन जवाब किसी एक का भी नहीं मिलता। देश का पूरा सिस्टम ही राजनीति की परिक्र मा में लगा हुआ है। अकूत दौलत राजनीति की छत्रछाया में ही संजोई जाती है। राजनीति की हनक और चमक के आगे कामगारों का कोई वजूद ही नहीं। कोई भी आम आदमी कहीं दूर-दूर टिकता हुआ दिखाई नहीं देता।  देश के सिस्टम का ढांचा ही इस प्रकार गढ़ दिया गया है जिससे आम आदमी इस व्यवस्था से अनजान रहे। आम आदमी को इतना दूर फेंक दिया गया कि वह सिस्टम के करीब आ ही नहीं सकता। 
 सियासी पार्टियों को कुछ चतुर लोग भारी चंदा देते रहते हैं। इसी चंदे की बुनियाद पर उनका पूरा खेल चलता रहता है।  चंदा-दाता किसी मौसम वैज्ञानिक से कम नहीं होते। राजनीति का मौसम तुरंत भांप लेते हैं और उसी के अनुसार अपना रूप भी बदल लेते हैं। यह एक ऐसा रूप होता है जो राजनीति के गलियारे में बहुत ही अहम माना जाता है क्योंकि जो कार्य बड़े-बड़े पुराने राजनेता नहीं कर पाते, वह कार्य यह वर्ग बखूबी कर देता है क्योंकि राजनीति का खेल संख्या बल का है। संख्या बल के आधार पर ही प्रत्याशी विजयी एवं पराजित होता है।  बिहार की मौजूदा राजनीति पर यदि प्रकाश डालें तो बहुत कुछ साफ एवं स्पष्ट हो जाता है। बिहार की वास्तविक स्थिति यह है कि एक पुल के लिए ग्रामीण संघर्ष कर रहे हैं, प्रदर्शन कर रहे हैं। यह है बिहार की विकासशील तस्वीर। यह है प्रगतिशील बिहार का ढांचा। अब सवाल यह उठता है कि जिस विकास का ढिंढोरा जोर-जोर से पीटा जा रहा है। इसकी तस्वीर एकदम से कहीं भी साफ एवं स्पष्ट नहीं है। (युवराज)