‘चलो गांव की ओर’ को सार्थक करने का समय

जब यह तय हो ही गया है कि कोविड महामारी के साथ तब तक जीना होगा जब तक इसका कोई उपचार नहीं निकल जाता। फिर अपनी जीवन शैली और रहन-सहन बदल लेने में क्या हर्ज़ है, बजाय इसके कि बीमारी से पहले जिस तरह जीते थे, उसे याद कर अपना मन दुखी किया जाए। सरकार ने इस बीमारी के दौरान बहुत से राहत पैकेज घोषित किए हैं जो एक तरह से उन वायदों को पूरा करने की ओर पहला कदम है जो इस साल बजट में किए गए थे । इसलिए यह समझना कि ये पैकेज इस बीमारी से उपजी समस्याओं का कोई निराकरण है तो यह गलतफमियों को अपने साथ लेकर चलने जैसा होगा।
कृषि और ग्रामीण उद्योग
जिन क्षेत्रों में राहत पैकेज की घोषणा की गई है उनमें प्रमुख रूप से कृषि तथा छोटे और मझौले उद्यमियों को विशेष लाभ पहुंचाना है, बशर्ते इन योजनाओं को लागू करने के लिए  सरकारी विभाग, संस्थान और विशेष रूप से बैंक सहयोग करें जो केवल तभी हो सकता है जब सरकार अपने डंडे यानी दंड का इस्तेमाल करने में कोताही न करे। लाभार्थी अपने अधिकार के छीने जाने की कोशिश को नाकामयाब कर दें और इसके लिए आवेदन, शिकायत, धरना, प्रदर्शन या जो भी विधिसम्मत तरीका, हो उसे अपनाएं। सरकार ने बजट में कृषि और कृषकों की उन्नति के लिए जो प्रावधान किए थे, उनमें किसानों को अपनी उपज के निर्यात का लक्ष्य बनाकर काम करना, खेतीबाड़ी में नए औज़ार, तकनीक और कृषि टेक्नोलॉजी का भरपूर इस्तेमाल तथा सिंचाई के लिए पानी प्रति एहतियात बरतने के उपाय, पशुपालन, डेयरी उद्योग तथा मत्स्य पालन को आमदनी का प्रमुख स्रोत बनाना था।इन सब घोषणाओं का एक ही मकसद था कि जब तक किसान का परंपरागत खेती से ध्यान हटाकर उसे खेतीबाड़ी से जुड़ी  गैर कृषि गतिविधियों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक किसान की आय को 2022-23 तक दुगुना करने के वायदे को पूरा करना असम्भव है।
एक तीर अनेक निशाने
जहां तक इस महामारी का संबंध है तो इसे एक ऐसे मौके की तरह सरकार ने इस्तेमाल किया है जिससे वह एक तीर से कई निशाने लगा सकती है। सबसे पहले तो विपक्ष खास तौर से कांग्रेस के इस मंसूबे पर पानी फिर गया कि उसकी यह बात कि गरीबों, किसानों के खातों में पहले 7500 और अब दस हज़ार रुपए डालने की बात अगर सरकार मान लेती है तो उसका खज़ाना इस एक ही झटके से काफी हद तक खाली हो जाएगा और तब सरकार के प्रति जनता का अविश्वास बढ़ाना आसान हो जाएगा।दूसरा निशाना यह लगा कि जब शहरों में इस महामारी ने काम धंधे चौपट कर दिए हैं तो लोगों को ग्रामीण क्षेत्रों में लौटने और वहां या तो अपनी ज़मीन में खेतीबाड़ी करने और अगर ज़मीन नहीं है तो कोई गैर कृषि उद्योग शुरू कर दें। इसके लिए सरकार ने बैंकों से यहां तक कह दिया है कि वे उसे भी ऋण दें जिसकी चुकाने की हैसियत न हो, मतलब बिना किसी गारंटी के पैसा दें। अगर वह आगे चलकर सभी सुविधाओं का लाभ उठाने के बाद भी कर्जा नहीं उतार पाता है तो सरकार उसकी भरपाई करेगी।यह जो बीमारी के दौरान मज़दूरों का शहरों से मोहभंग होने के कारण पलायन हुआ है, भाजपा शासित सरकारों ने उन्हें अपने ही प्रदेशों में रोके रखने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया है। गैर भाजपा सरकारों के लिए भी यह सुनहरा अवसर है कि वे अपने प्रदेशों में अपने लोगों के वापिस लौटने के बाद उन्हें अपने यहां रोके रखने के उपाय करें और उन्हें इतनी सहूलियत प्रदान कर दें कि वे शहरों की तरफ  रोजी- रोटी कमाने के लिए अपना रुख न करें।तीसरा निशाना यह लगा कि अब जिन लोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी जमीन की दुर्दशा की हुई थी, वे सभी और जिन्होंने किसी भी लालच जैसे कि अधिग्रहण होने पर मुआवज़ा लेने या कभी वहां कोई रोजगार शुरू करने की संभावना की उम्मीद  में आकर गांव देहात में ज़मीन खरीद ली थी, वे भी अब उस ज़मीन पर अब खेतीबाड़ी करने या खेती से जुड़ा कोई उद्योग जैसे प्रोसेसिंग यूनिट, वेयरहाउस, पोलिफार्म, अनाज का गोदाम  या ऐसा ही कुछ खोल सकते हैं। अगर यह सब करने में रुचि नहीं है और ज़मीन का इस्तेमाल भी करना है तो इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि वहां पशुपालन, डेयरी फार्म या मत्स्य पालन शुरू कर दें। और अगर कुछ न कर सकें तो ऐसी दुकान, सर्विस सेंटर खोल लें जो किसानों और दूसरे उद्यमियों को वाजिब दाम पर आधुनिक यंत्र और टेक्नोलॉजी से लेकर उन्हें  उनकी ज़रूरत के अनुसार सलाह दे सकें।यह भी एक व्यवसाय ही होगा कि शिक्षित युवा इस तरह के सम्मेलन, आयोजन या सर्वेक्षण जैसे काम कर सकते हैं जिनमें  बैंकों के अधिकारी, कृषि वैज्ञानिक या सरकारी अधिकारी गांव वालों का मार्गदर्शन करने के लिए बुलाए जा सकते हों। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इस जानकारी का अभाव रहता है कि सिंचाई, फसल, बीज, मंडी तथा बाज़ार से संबंधित सवालों के जवाब किसके पास होंगे। अगर कोई युवा इन प्रश्नों के उत्तर देने का ही काम शुरू कर दे तो यह अपने आप में ही अच्छा खासा उद्यम है। सरकार ने जो एमएसएमई की परिभाषा बदली है, यह कदम देर से ही सही लेकिन दुरुस्त है। इसमें सर्विस यानी सेवा प्रदाताओं को भी शामिल कर एक सही और सार्थक कदम उठाया गया है जिसके अच्छे नतीजे निकलेंगे, बशर्ते कि इनका रुख केवल शहरों की ओर न हो बल्कि गांव की ओर भी हो।
मुजतबा हुसैन
जब कोई ऐसा लेख, खाका या निबंध पढ़ने को मिले जिसे पढ़ते-पढ़ते मन में गुदगुदी और चेहरे पर मुस्कान दिखाई देने लगे तो इसे लिखने वाले की खूबी कहा जाएगा। ऐसे ही एक लेखक, व्यंग्य विधा में कमाल के व्यंग्यकार और हास्य को फूहड़पन के बजाय शालीनता से प्रस्तुत कर सकने में महारत रखने वाले जनाब मुजतबा हुसैन अब हमारे बीच नहीं हैं। वे हालांकि उर्दू में लिखते थे लेकिन हिंदी में भी बेहद लोकप्रिय थे। देश के मूर्धन्य साहित्यकारों में उनका अग्रणी स्थान था और सरकार ने उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा था। उनके निधन से इस विधा की अपूरणीय क्षति हुई है।