राजनीतिक दलों को तोड़ती विरासत की दावेदारी

राजनीतिक विरासत की दावेदारी को लेकर पारिवारिक घमासान की खबरें तो स्वतंत्रता के बाद ही उस समय आनी शुरू हो चुकी थीं जबकि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने साथ अपनी इकलौती बेटी इंदिरा प्रियदर्शिनी को साथ लेकर देश विदेश की यात्राओं पर जाया करते थे। वह राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नेताओं व राष्ट्राध्यक्षों से उनका परिचय कराते और उन्हें राजनीति के दांव पेच सिखाते। नेहरू ऐसा इसीलिये करते थे ताकि उनकी राजनीतिक विरासत उनकी इकलौती बेटी इंद्रा संभाल सके, परन्तु उसी समय नेहरू की बहन व स्वतंत्रता सेनानी विजय लक्ष्मी पंडित के अंतर्मन में भी नेहरू की विरासत संभालने की मनोकामना पनप रही थी। नेहरू के बाद इंदिरा व उनकी बुआ विजय लक्ष्मी पंडित  के परस्पर मतभेदों के भी कई किस्से सामने आते रहते थे। चूंकि यह देश का सर्वोच्च राजनीतिक घराना था इसलिये अपनी सूझ-बूझ से इस पारिवारिक मतभेद को उन्होंने ज़्यादा उभरने नहीं दिया। विजय लक्ष्मी पंडित को कभी राज्यपाल, कभी राजदूत तो कभी संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष जैसे पदों पर नियुक्त कराकर पारिवारिक मतभेदों को ज़्यादा उभरने का मौका नहीं दिया, यही परिवार राजनीतिक विरासत की दावेदारी को लेकर उस समय बिखर गया जब इंदिरा गांधी द्वारा अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में तैयार किये जा रहे उनके छोटे बेटे संजय गांधी की विमान हादसे में मृत्यु हो गयी। जब संजय गांधी की जगह दूसरा वारिस तलाश करने का समय आया तो इंदिरा गांधी ने अपने बड़े बेटे राजीव गांधी को आगे किया। उस समय संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी यह आस लगाये बैठी थीं कि शायद वह संजय गांधी की उत्तराधिकारी बनाई जाएंगी। जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने अंत्तोगत्वा पार्टी व परिवार दोनों से विद्रोह का रास्ता अपना लिया। अभी तक मेनका गांधी कांग्रेस पार्टी और अपने गांधी नेहरू परिवार से अलग अपनी पहचान बनाकर राजनीति में सक्रिय हैं। 
पिछले दिनों महाराष्ट्र में शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में हुआ विभाजन भी दरअसल पार्टी विरासत को लेकर उभरे मतभेदों का परिणाम नज़र आ रहा है। शरद पवार भी अपनी पार्टी की विरासत को अन्य नेताओं की ही तरह अपनी सांसद बेटी सुप्रिया सुले को ही सौंपना चाहते थे। इसीलिये गत माह जून में सुप्रिया सुले को राकांपा का कार्यकारी अध्यक्ष बना कर उनके आगे आने का रास्ता साफ किया गया। ज़ाहिर है यह बात उनके भतीजे व वरिष्ठ राकांपा नेता अजित पवार जोकि महाराष्ट्र में विपक्ष के नेता से लेकर प्रदेश के कई बार उप-मख्यमंत्री तक के पदों पर रह चुके हैं, को यह सब रास नहीं आया। आखिरकार पिछले दिनों लम्बे समय से राकांपा में सुलग रही बगावत की यह चिंगारी उस समय भड़क उठी जब महाराष्ट्र की भाजपा-शिवसेना सरकार में अजित पवार उप-मुख्यमंत्री के तौर पर शामिल हो गए और पार्टी के नौ विधायकों के साथ पार्टी से अलग हो गये। 
इससे पहले महाराष्ट्र में ही बाल ठाकरे की विरासत की दावेदारी को लेकर शिवसेना बल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे व भतीजे राज ठाकरे के बीच विभाजित हो चुकी है। इसी तरह उत्तर प्रदेश के मुलायम सिंह यादव परिवार में अखिलेश यादव व शिवपाल यादव यानी चाचा भतीजे के बीच मतभेद उभरते रहे हैं। हरियाणा में चौधरी देवीलाल परिवार में या फिर उनके बाद ओम प्रकाश चौटाला के बेटों अजय व अभय चौटाला के बीच विरासत की रस्साकशी होती देखी गयी। दशकों पूर्व आंध्र प्रदेश में एन. टी. रामाराव की विरासत को लेकर बेटी व दामाद के बीच विरासत की जंग हो चुकी है। लालू यादव परिवार में भी तेजस्वी यादव को उनके बड़े भाई तेज प्रताप यादव अक्सर आंखें दिखाते रहते हैं। बिहार में ही जिस लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) का जनाधार बड़ी मुश्किल और मेहनत से राम विलास पासवान ने तैयार किया था, उनकी मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद उनके भाई पशुपति कुमार पारस ने भाजपा की चाल में आकर केंद्रीय मंत्री पद की लालच में उनकी विरासत पर जबरन कब्ज़ा कर लिया और लोजपा का विभाजन कर दिया जबकि राम विलास अपने बेटे चिराग पासवान को अपना राजनीतिक वारिस के रूप में तैय्यार कर रहे थे। 
पिछले कुछ वर्षों से भारतीय जनता पार्टी द्वारा जहां मंत्री अथवा अन्य उच्च पदों की लालच देकर क्षेत्रीय पार्टियों को समाप्त या कमज़ोर करने की कोशिशें की जा रही हैं, जैसे बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के साथ की गयी, उसी तरह केंद्रीय जांच एजेंसियों का भय दिखाकर भी भ्रष्टाचार के आरोपी अनेक नेताओं को भी भाजपा द्वारा अपने साथ जोड़ा जा रहा है। कुछ ही दिन पहले स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘राकांपा सबसे भ्रष्ट पार्टियों में से एक है और उनके नाम 73,000 करोड़ का घोटाला है’, परन्तु अब राकांपा के उन्हीं कथित भ्रष्ट नेताओं से हाथ मिला लिया गया है। जिन नेताओं को भ्रष्ट बताया गया था, उन्हीं के साथ केवल हाथ ही नहीं मिलाया गया बल्कि उन्हें मंत्रिमंडल में भी शामिल कर लिया गया है। 
इस समय अजित पवार सहित प्रफुल पटेल, छगन भुजबल, आदित्य सुनील तटकरे व हसन मुशरीफ जैसे राकांपा छोड़ने व भाजपा सरकार से हाथ मिलाने वाले नेता ऐसे हैं जिन पर भ्रष्टाचार विरोधी मामले चल रहे हैं या वे ईडी के निशाने पर हैं। पहले भी भाजपा ने नारद स्टिंग कांड में सुवेंदु अधिकारी को कैमरे पर पैसे लेते देखे जाने के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है। गोया, राजनीतिक दलों को जहां विरासत की दावेदारी तोड़ रही है, वहीं नयी ‘भ्रष्टाचारियों को राहत’ योजना के तहत भी या तो पार्टियां तोड़ी जा रही हैं या भ्रष्टाचारी नेताओं को अपने साथ जोड़ा जा रहा है।