वनों की बदौलत ही है धरती पर जीवन

धरती पर संतुलन बनाए रखने के लिए मनुष्यों और जीव-जंतुओं के अलावा वृक्षों तथा वनों का भी बेहद महत्वपूर्ण योगदान है। दरअसल वन जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों का प्राकृतिक आवास स्थान होने के साथ-साथ भोजन का माध्यम भी हैं और धरती पर जीवन भी वनों की बदौलत ही है। पृथ्वी पर जीवन के लिए बहुत जरूरी तत्व है ऑक्सीजन और धरती पर वन ही हैं, जो बहुत बड़ी मात्रा में वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड को सोखकर उसे ऑक्सीजन में बदलते हैं। वन वर्षा कराने, तापमान को नियंत्रित रखने, मृदा के कटाव को रोकने तथा जैव-विविधता को संरक्षित करने में सहायक होते हैं और सही मायनों में धरती पर पाई जाने वाली जैव विविधता वनों के कारण ही है। पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित रखने में वनों की अहम भूमिका होती है। वनों में वृक्षों की मजबूत जड़ें मिट्टी को जकड़े रखकर भारी बारिश में भी मिट्टी के कटाव को रोकती हैं, जिससे बाढ़ का खतरा कम हो जाता है। हालांकि दुनियाभर में वनों तथा जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कारण अब पृथ्वी पर वन और उनमें रहने वाले जीव-जंतुओं के आवास स्थल काफी सिमट गए हैं। हर साल दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विशालकाय जंगलों में लगने वाली आग के कारण लाखों हैक्टेयर जंगल तथा जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां तबाह हो जाती हैं। वर्ष 2020 में ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी भीषण आग में तो जैव विविधता के साथ-साथ बहुत बड़ी संख्या में जंगल जलकर खाक हो गए थे।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन दशकों में विश्वभर में करीब एक अरब एकड़ क्षेत्र में वन नष्ट हो गए हैं। कुछ दशक पहले तक जहां पृथ्वी का करीब 50 प्रतिशत भू-भाग वनों से आच्छादित रहता था, वहीं अब यह महज 30 प्रतिशत ही रह गया है और वनों का अंधाधुंध सफाया यदि इसी रफ्तार से होता रहा तो इसमें और कमी आएगी। पर्यावरण विशेषज्ञों के मतानुसार पृथ्वी पर वनों की संख्या घटते जाने का सीधा असर धरती पर मौजूद पूरी जैव विविधता पर पड़ेगा। जंगलों की अंधाधुंध कटाई से आने वाले समय में जहां जल चक्र, मृदा संरक्षण और जैव मंडल पर गहरा प्रभाव देखने को मिलेगा, वहीं वनों का क्षेत्रफल घटते जाने से जीव-जंतुओं के आवास पर भी संकट आएगा और साथ ही अनियमित मौसम के रूप में मानव जाति पर भी इसके भयंकर दुष्प्रभाव सामने आएंगे। वनों और जंगलों में वृक्षों की अंधाधुंध कटाई के कारण ही अब धरती पर ग्लोबल वार्मिंग के साथ-साथ प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता भी लगातार बढ़ रही हैं। यदि भविष्य में वनों की संख्या में वृद्धि नहीं होती है तो मनुष्यों की बढ़ती आबादी के मद्देनज़र पृथ्वी पर मानव संसाधनों के अलावा सांस लेने के लिए ऑक्सीजन, अन्न उगाने के लिए मिट्टी तथा पीने के लिए स्वच्छ जल की भारी कमी हो जाएगी। वन पृथ्वी के फेफड़ों की भांति कार्य करते हैं, जो वातावरण से सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, अमोनिया, ओजोन इत्यादि प्रदूषक गैसों को अपने अंदर समाहित कर वातावरण में प्राणवायु छोड़ते हैं।
पृथ्वी का वह क्षेत्र, जहां वृक्षों का घनत्व सामान्य से अधिक होता है, वन कहलाता जाता है और वन कई प्रकार के होते हैं, जिनमें सदाबहार वन, मैंग्रोव वन, शंकुधारी वन, उष्णकटिबंधीय वन, शीतोष्ण वन, पर्णपाती वन, बोरील वन, कांटेदार वन शामिल हैं। भारत में मुख्यत: सदाबहार वन, मैंग्रोव वन, शंकुधारी वन, पर्णपाती वन, शीतोष्ण कटिबंधीय वन इत्यादि हैं। सदाबहार वनों को वर्षा वन भी कहा जाता है, जो भारत में पश्चिमी घाट, अंडमान निकोबार दीप समूह तथा पूर्वात्तर भारत जैसे उच्च वर्षा क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन क्षेत्रों में वृक्ष एक-दूसरे से आपस में मिलकर ऐसी छत सी बना लेते हैं कि सूर्य का प्रकाश जमीन तक नहीं पहुंच पाता और इसीलिए जमीन पर बड़ी संख्या में पेड़-पौधे उग जाते हैं। मैंग्रोव वन डेल्टाई इलाकों तथा नदियों के किनारे पर उगते हैं और नदियों द्वारा अपने साथ बहाकर लाई गई मिट्टी के साथ लवणयुक्त तथा शुद्ध जल में आसानी से वृद्धि कर जाते हैं। नुकीली पत्तियों वाले काफी सीधे और लंबे वृक्षों वाले शंकुधारी वन अधिकांशत: हिमालय पर्वत जैसे कम तापमान वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन वृक्षों की शाखाएं नीचे की ओर झुकी होती हैं, इसलिए इनकी टहनियों पर बर्फ नहीं टिक पाती। पर्णपाती वन मध्यम वर्षा वाले ऐसे इलाकों में पाए जाते हैं, जहां वर्षा कुछ महीनों के लिए ही होती है। मानसून आने पर तेज़ बारिश और सूर्य का प्रकाश जमीन तक पहुंचने पर इन वनों की वृद्धि तेज़ी से होती है और मानसून में ही ये घनी वृद्धि करते हैं। गर्मी तथा सर्दी के मौसम में इन वृक्षों की पत्तियां गिर जाती हैं और चैत्र माह में इन पर नई पत्तियां आनी शुरू हो जाती हैं। खजूर, कैक्टस, नागफनी जैसी वनस्पतियों और छोटी, मोटी व मोमयुक्त पत्तियों वाले कांटेदार वन कम नमी वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जिनकी रेशेयुक्त जड़ें धरती में गहरे समायी होती हैं। इन वनों में कांटेदार वृक्ष काफी दूर-दूर स्थित होते हैं, जो जल संरक्षित करने का कार्य करते हैं। उष्णकटिबंधीय वन भूमध्य रेखा के निकट पाए जाते हैं जबकि शीतोष्ण वन मध्यम ऊंचाई वाले स्थानों और बोरील वन ध्रुवों के निकट मिलते हैं।
भारत के संदर्भ में वनों की स्थिति पर नज़र डालें तो केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय द्वारा देश में वर्ष 1987 से वनों तथा वृक्षों की स्थिति का जायजा लेने वाली रिपोर्ट हर दो वर्ष में प्रकाशित की जाती है। भारतीय वन सर्वेक्षण (एफ.एस.आई.) की ओर से 13 जनवरी 2022 को प्रकाशित ‘17वीं भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2021’ में दो वर्षों में देशभर में वन तथा वृक्ष आच्छादित भू-भाग का दायरा 2261 वर्ग किलोमीटर बढ़ने की बात कही गई थी। हालांकि 2017 की तुलना में 2019 में जंगल तथा वृक्षों के आवरण में 5188 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज की गई थी, इस लिहाज से 2019 से 2021 के बीच हुई वृद्धि काफी कम है। रिपोर्ट के मुताबिक अब देश में वन आच्छादित भू-भाग 809537 वर्ग किलोमीटर है। सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 24.62 प्रतिशत भू-भाग पर वनों और वृक्षों का आवरण है जबकि राष्ट्रीय वन नीति-1988 में देश के कुल 33 प्रतिशत भू-भाग को वनाच्छादित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था यानी अभी भी हम लक्ष्य से बहुत दूर हैं।
वन धरती पर विद्यमान जैव विविधता के अलावा समस्त मानव जाति के अस्तित्व के लिए भी इतने महत्वपूर्ण हैं कि यदि इन्हें नष्ट होने से नहीं बचाया गया तो दुनियाभर में मनुष्यों तथा जीव-जंतुओं के आस्तित्व पर पूर्ण विराम लग सकता है। यही कारण है कि 2021 के ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में 100 से भी ज्यादा देशों ने वर्ष 2030 तक वनों की कटाई पर पूर्ण पाबंदी लगाने का संकल्प लिया गया। वनों की अंधाधुंध कटाई तथा बढ़ते प्रदूषण के कारण ही अब विश्वभर में कई ग्लेशियर लुप्त होने के कगार पर हैं और ग्लोबल वार्मिंग का भी विकराल खतरा निरन्तर बढ़ रहा है, जिसके कारण पिछले कुछ वर्षों से दुनियाभर में मौसम में बड़े बदलाव देखने को मिल रहे हैं। यही कारण है कि पूरी दुनिया को एकजुट होकर वनों का विनाश रोकने के लिए सार्थक पहल किए जाने की सख्त जरूरत महसूस की जाने लगी है।

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