प्रदूषण के लिए सिर्फ किसानों पर दोषारोपण ठीक नहीं

पिछले कुछ वर्षों से प्रदूषण की समस्या कम होने की बजाय निरन्तर बढ़ती जा रही है। साफ  हवा पाने के लिए विभिन्न स्तर पर लगातार प्रयास भी किये जा रहे हैं। शासन-प्रशासन ने इस दिशा में काम करते हुए विभिन्न स्तर पर कई बंदिशें भी लगाई हैं। इन प्रयासों में कुछ पाबंदियां भी लगाई गईं और दिल्ली में वाहनों के लिए ऑड-ईवन फार्मूला भी अपनाया गया, परन्तु अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। इतना अवश्य हुआ कि इससे भवन एवं सड़क निर्माण जैसे कामों पर रोक लागाने से मज़दूरों का रोज़गार अवश्चय छिन गया। रोज़गार न होने से बहुत-से लोगों के सामने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करना भी मुश्किल हो गया। छोटे-छोटे ढाबों व होटलों की भट्टी नहीं जलने से उनके लिए भी रोज़गार और रोटी की समस्या खड़ी हुई, परन्तु हवा साफ  करने में कोई मदद नहीं मिली।
प्रदूषण की समस्या बढ़ी तो इसका ठीकरा किसानों पर फोड़ दिया गया। यह एक ऐसा मुद्दा मिला कि प्रदूषण का पूरा दोष पराली जलाने पर केंद्रित हो गया और इसी के साथ आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरु हो गया। इन आरोप-प्रत्यारोपों की आड़ लेकर शासन-प्रशासन अपनी नाकामी और सच्चाई दबाने के प्रयास में जुटा हुआ दिखाई देने लगा। कमोबेश वह अपने प्रयासों में कामयाब भी रहा। 
पराली से पूरा प्रदूषण का हल्ला होने के बीच ये तथ्य पूरी तरह गौण कर दिये गये कि केवल पिछले दस से पंद्रह वर्ष के दौरान ही जीवनदायिनी आक्सीजन देने वाले कितने हरे-भरे पेड़ काट दिये गये। कहीं सड़कों के विस्तार और विकास कार्यों के लिए तो कहीं सेक्टर और रिहायशी कालोनियां विकसित करने के लिए दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में जिस ताबड़तोड़ रफ्तार से हरियाली नेस्तनाबूद कर दी गई, उसकी कहीं कोई चीख-पुकार नहीं है। पिछले 15 वर्षों में ही सड़कों पर वाहनों की कितनी संख्या बढ़ी और इनसे कितना प्रदूषण बढ़ रहा है, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए और उपाय भी।
अधिक समय नहीं गुज़रा है जब खेतों में पराली जलाने के अलावा गांवों के लगभग हर घर में चूल्हा जलता था, गोबर के उपलों की अंगीठी जलती थी और भारी मात्रा में धुआं उत्सर्जित होता था परन्तु खेतों से लेकर सड़कों दोनों ओर भारी संख्या में प्रदूषण के पहरेदार के रूप में खड़े पेड़ इनसे निकलने वाले धुएं को प्रदूषण फैलाने से रोक लेते थे। भारी संख्या में खड़े रहने वाले ये पेड़ धुएं के प्रदूषण कारकों को फिल्टर करते थे। अब पूरे एनसीआर क्षेत्र में ही नहीं, कई राज्यों के शहरों, कस्बों और गांवों में विकसित हुई कालोनियों और सड़कों के विकास ने पेड़ों की हरियाली को लील लिया। काटे गये पेड़ों के बदले दस गुणा नये पेड़ लगाने का नियम हरियाली बनाए रखने में कारगर साबित नहीं हुआ। काटे गये सौ पेड़ों की जगह दस गुणा तो दूर, पांच पेड़ भी कहीं दिखाई नहीं देते। सेक्टर-कालोनियों में जो थोड़ी-बहुत हरियाली कहीं दिखाई भी देती है, वह लोगों के निजी प्रयास की बदौलत ही कही जा सकती है।
ऐसा भी नहीं है कि सरकारी विभागों, विशेषकर वन विभाग आदि ने प्रयास नहीं किये, परन्तु उनके प्रयास उतने फलदायी तो कहीं भी नहीं दिखाई देते जितने हर साल आंकड़े जारी किये जाते हैं या पौधारोपण की योजनाएं गिनवाई जाती हैं।
यह तो तय है कि आर्थिक विकास की गति बढ़ने के साथ-साथ उद्योगों पर रोक लगाना भी संभव नहीं होगा। बंदिशें इस समस्या का समाधान नहीं हो सकतीं। प्रदूषण मुक्त वातावरण के लिए दीर्घकालिक ठोस उपाय तो करने ही होंगे। इन उपायों में शासन-प्रशासन से लेकर नगर निकाय, पंयायत विकास और सेक्टर-कालोनियों के साथ-साथ आम आदमी को भागीदार बनाना होगा। पराली जलाकर प्रदूषण के लिए कठघरे में रखे गये किसानों को हरियाली बढ़ाने की योजनाओं में शामिल कर उनके आर्थिक लाभ के उपाय भी खोजने होंगे ताकि वे बिना संकोच आगे आएं।
किसानों को हरियाली बढ़ाने में भागीदार बनाने के लिए उन्हें उत्तम किस्म के फलदार पेड़ों के विकसित पौधे नि:शुल्क उपलब्ध करवाने की योजना अपनाई जा सकती है। क्षेत्र या जिला स्तर पर अलग-अलग फलों की प्रोसेसिंग की व्यवस्थाएं भी होंगी तो किसानों को अपनी पैदावार को बेचने में सुविधा रहेगी। ऐसी सुविधाओं के अभाव में बहुत-सी योजनाओं के आपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते हैं। सड़कों के साथ लगते खेतों के किसानों को पौधारोपण करने के प्रति प्रोत्साहित किया जा सकता है। इस पौधारोपण में उनकी आर्थिक हिस्सेदारी या प्रति पेड़ उन्हें निश्चित प्रोत्साहन राशि का प्रस्ताव दिया जा सकता है।
छायादार पेड़ लगाने के लिए ग्राम पंचायतों के लिए भी योजनाएं शुरू की जा सकती हैं। पंचायतों द्वारा लगाये गए पेड़ों की गिनती करा कर उन्हें विकास कार्यों के लिए प्रोत्साहन राशि का प्रस्ताव दिया जा सकता है। साथ ही ब्लाक, जिला और प्रदेश स्तर पर ज़्यादा पेड़ लगाने के लिए पुरस्कृत किये जाने जैसी योजनाएं भी शुरू की जा सकती हैं। 
उत्तर प्रदेश और उत्तरी हरियाणा सहित कई इलाकों में कुछ साल पहले पापुलर की खेती काफी प्रसिद्ध हुई थी, परन्तु बाद में इस खेती में मुनाफा सिमट जाने तथा पेड़ों को काटने और इनकी बिक्री में दिक्कतें आने से किसानों का पापुलर की खेती से मोह भंग हो गया। हरियाणा में किसानों को बड़ा भागीदार बनाने के लिए उनके हित-अहित और लाभ का आकलन कर शासन को ही नई पहल करनी होगी।
पौधारोपण अभियानों में अधिक से अधिक लोगों की भागीदारी के लिए ज़रूरी है कि योजनाएं सकारात्मक परिणाम देने वाली हों। इन योजनाओं में अच्छी तरह विकसित, छह से सात फुट बड़े टिम्बर प्लांट (छायादार पौधे) नि:शुल्क सहज उपलब्ध कराने की व्यवस्था शामिल की जा सकती है। सर्वे या अध्ययन करवा कर यह भी जानकारी जुटाई जानी चाहिए कि किस क्षेत्र में कौन-कौन से पौधे शीघ्रता से पनपते हैं। दिल्ली एनसीआर में नीम, पीपल, शीशम साथ-साथ बिना विशेष देखभाल के शीघ्र बढ़ने वाले बबूल जैसे पौधों को बढ़ावा दिया जा सकता है। पीपल के पौधे इसलिए भी परिणाम देने वाले हो सकते हैं कि धार्मिक कारणों से इनकी अवैध कटाई कम ही होती है। नीम और शीशम को हार्डी श्रेणी में रखा जाता है। एक बार जड़ जमने पर ये पेड़ आम तौर पर स्वत: नष्ट नहीं होते। इसी प्रकार के और भी अनेक पौधे हो सकते हैं। अब समय आ गया है कि इस दिशा में विलम्ब किया जाना या उदासीनता बरता जाना सिर्फ  और सिर्फ  इन्सानी स्वास्थ्य और आर्थिक विकास के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। (युवराज)