जातीय समीकरण साधने में सिमट गई भाजपा की राजनीति

मध्य प्रदेश में भाजपा के चुनाव जीतने के बाद मंत्री परिषद् की जिस तरह से गोटियां बिठाई जा रही हैं, उससे साफ  है कि भाजपा प्रदेश समेत राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार को जातीय महत्व का संदेश दे रही है। सबसे पहला संदेश राजस्थान की कद्दावर भाजपा नेत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को था कि जब 163 सीटों की जीत दिलाने वाले शिवराज सिंह चौहान को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया है, तो उनकी अहमियत कितनी है? विधायक दल की बैठक में मोहन यादव को बिना किसी विरोध के नेता चुन लिया गया। स्वयं शिवराज ने उनके नाम का प्रस्ताव किया और जो सांसदी छोड़ मुख्यमंत्री बनने की कतार में थे, उन सबको समर्थन की विनम्र वाणी उच्चारित करनी पड़ी। 
यादव के मुख्यमंत्री बनने की घोषणा के साथ ही यह संदेश उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव और बिहार के तेजस्वी और तेज प्रताप यादव को चला गया कि यह यादवी विस्तार का यह शंखनाद भविष्य में इन दोनों प्रांतों में गूंजने वाला है। गोया, अखिलेश और तेजस्वी के यादवी वर्चस्व को 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में उठाना पड़ सकता है? गोया, मोहन यादव को मुख्यमंत्री पद से विभूषित करने वाला यह नाम यूं ही घोषित नहीं किया गया है। भाजपा के पास मौजूदा वक्त में राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार में कोई प्रमुख यादव नेता नहीं है।  
हालांकि मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाना अचरज में ज़रूर डालता है, लेकिन करीब एक साल पहले जब शिवराज सत्ता विरोधी रुझान से जूझ रहे थे, तब भी मुख्यमंत्री बदलने की स्थिति में मोहन यादव का नाम उछला था, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने बदला नहीं, क्योंकि इसके दूरगामी परिणाम झेलने पड़ सकते थे। भाजपा यदि प्रदेश में हारती तो कहा जाता यह हार मुख्यमंत्री बदले जाने के कारण हुई। यह आरोप मोहन को तो झेलना ही पड़ता, केंद्रीय नेतृत्व भी इस दोष के दायरे में आ जाता। बहरहाल, मोदी और शाह की जोड़ी ने मध्य प्रदेश में स्थिति सुधारने के नज़रिए से बार-बार प्रदेश की यात्राएं करके कार्यकर्ताओं को तो सक्रिय किया ही, शिवराज को भी मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की खुली छूट दे दी। परिणामस्वरूप शिवराज ने प्रदेश को कज़र् में डुबोने की परवाह किए बिना कई स्रोतों से कज़र् लिया और उसे बांट कर सत्ता हासिल करने की राह आसान कर ली। इसमें सबसे कारगर योजना लाडली बहना रही। इन्हीं बहनों ने भाजपा की नैया पार लगा दी। शिवराज को ओबीसी होने के बावजूद मुख्यमंत्री इसलिए नहीं बनाया गया, क्योंकि जीत का श्रेय अकेले शिवराज को न मिल जाए। गोया, छत्तीसगढ़ में आदिवासी चेहरे के रूप में विष्णु देव को मुख्यमंत्री बनाने के बाद एकदम नए चेहरे मोहन यादव को प्रदेश की बागडोर सौंप दी गई है। 
चूंकि छत्तीसगढ़ में आदिवासी विष्णुदेव को मुख्यमंत्री बना दिया गया, इसलिए मध्य प्रदेश में फिर से ओबीसी कार्ड खेलना ज़रूरी था। शिवराज की जाति किरार-धाकड़ के बाद प्रदेश में दूसरा बड़ा समुदाय लोधी है। इस समुदाय की उमा भारती मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। प्रह्लाद पटेल भी इसी समुदाय से आते हैं। उन्हें केंद्रीय मंत्री और सांसदी से इस्तीफा दिलाकर विधानसभा चुनाव लड़ाया गया, वे जीत भी गए। अतएव शिवराज के बाद ओबीसी चेहरे के रूप में दूसरी बड़ी दावेदारी उन्हीं की थी, किंतु यह चेहरा लोकसभा चुनाव की दृष्टि से उपयुक्त साबित नहीं हो रहा था, लिहाजा नाम परिवर्तन ज़रूरी हो गया था। दरअसल केंद्रीय नेतृत्व उत्तर प्रदेश और बिहार में जातीय लाभ के साथ ऐसा चेहरा देना चाहता था, जो ओबीसी आरक्षण की काट तो लगे ही, कांग्रेस और विपक्षी दलों के जातीय जनगणना के मुद्दे को भी अप्रभावी साबित कर दे। हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी खुद के लिए पिछड़ी जाती का कार्ड अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से खेलने की कोशिश की थी, लेकिन असफल रहे। दरअसल भाजपा दूरदृष्टि से काम ले रही थी, वह न केवल मध्य प्रदेश के यादव समुदाय को साधना चाहती है, बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार के यादवों तक यह संदेश देना चाहती है कि भाजपा का साथ दिया तो मोहन यादव जैसे साधारण कार्यकर्ता की तरह इन राज्यों में भी यादव ही मुख्यमंत्री हो सकते हैं। गोया, इन प्रदेशों के अखिलेश और तेजस्वी से जुड़े यादव समूहों में भाजपा ने मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा का बीज बोने का काम कर दिया है। भाजपा का यह कार्ड सफल होता है तो नितीश कुमार की कुर्सी को चुनौती पेश आ सकती है। 
 मोहन यादव के चेहरे को महत्व देकर भाजपा ने उत्तर प्रदेश की पिछड़े वर्ग की 54 प्रतिशत आबादी को साधने की कोशिश की है। इसमें 20 प्रतिशत यादव समाज के मतदाता हैं। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटे हैं और प्रधानमंत्री बनने का मार्ग यहीं से खुलता है। बिहार में लोकसभा की 40 सीटे हैं। यहां पिछड़े वर्ग की कुल आबादी 63 प्रतिशत है, जिसमें 14 प्रतिशत यादव बताए जाते हैं। अतएव मोहन यादव के माध्यम से यादव मतदाताओं को साधने की यह कवायद आम चुनाव में भाजपा को लाभदायी साबित हो सकती है। 
जिन जगदीश देवड़ा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया है, वह भी संघ के करीबी होने के साथ अनुसूचित जाति से आते हैं। अतएव इस चेहरे के साथ भी इस जातीय समुदाय के वोट लुभाने की पहल भाजपा ने की है। दूसरे उप-मुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ला को बनाया गया है, जो प्रदेश में बड़ा ब्राह्मण चेहरा हैं। शिवराज मंत्रिमंडल में मंत्री होने के साथ विंध्य क्षेत्र के हर चुनाव में प्रमुख चेहरा रहने के साथ जीत की गारंटी भी बने रहे हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर मुख्यमंत्री की दौड़ में तो पिछड़ गए, लेकिन विधानसभा अध्यक्ष की आसंदी पर बैठ गए। उन्हें नरेंद्र मोदी के करीबी और भरोसेमंद मंत्रियों में गिना जाता है। इसलिए चुनाव लड़ने वाले अन्य सांसदों को उन्होंने पीछे छोड़ दिया। तोमर के ज़रिए भाजपा ने क्षत्रीय कार्ड भी खेला है। 

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